वाराणसी:ज्ञानवापी परिसर विवाद के बीच BHU की महिला इतिहासकार की एक किताब खासा चर्चा में है. किताब में ज्ञानवापी के इतिहास को गुप्त काल से भी पुराना बताया गया है. इसी के साथ ये दावा किया गया है कि काशी के किसी भी उत्खनन में 17वीं शताब्दी तक फव्वारे का जिक्र नहीं है. ईटीवी भारत से एक्सक्लूसिव बातचीत में बीएचयू के इतिहास विभाग की प्रोफेसर अनुराधा सिंह के दावों ने मुसलमानों के दावों पर सवाल खड़े किए हैं. इसके साथ ही उन्होंने ज्ञानवापी के उस इतिहास को भी बताया जो पुराणों धर्मशास्त्रों के पन्नों में कैद है.
जानकारी देतीं BHU इतिहासकार प्रो. अनुराधा सिंह. ज्ञानोद्ध से बना ज्ञानवापी, गढ़वाल सभ्यता से भी हैं पुराना
दरअसल, बीएचयू की इतिहास विभाग की प्रोफेसर अनुराधा सिंह ने एक किताब लिखी है इस किताब में गढ़वाल सभ्यता की बात लिखी गई है. इस सभ्यता में उन्होंने कहा है कि मैंने जो प्राचीन इतिहास व संस्कृति विषय पर किताब लिखा है उस किताब पर मैंने जो जिक्र किया है वह अविमुक्तेश्वर विशेश्वर, काशी विश्वनाथ या फिर ज्ञानवापी परिसर के संदर्भ में है. उसमें कहीं ज्ञानवापी मस्जिद का जिक्र नहीं है. इसका तो बहुत बात का चित्र है जब अविमुक्तेश्वर के मंदिर को तोड़कर के औरंगजेब ने उसे मस्जिद का रूप दिया. इस परिसर का जिक्र स्कंद पुराण के काशी खंड के पूर्वार्ध में मिलता है, जिसमें तमाम कथा के माध्यम से दिखाया जाता है कि जहां ईश्वर जल स्वरूप में विराजमान हैं. यहां का जो शीतल जल था. वह समस्त पापों को नाश करने वाला था. इसकी रचना स्कंद पुराण के आठवीं शताब्दी से सामने आता है, लेकिन पुराणों के अनुसार यह इसकी प्राचीनता गुप्त काल से भी पहले से है.
ज्ञानवापी में धार्मिक चिन्ह मिलना है लाजमी, जल स्वरूप में परिक्षेत्र में विराजमान है शिव
उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद में सनातन धर्म के चिन्हों जैसे त्रिशूल, स्वस्तिक और अन्य आकृतियों के मिलने पर कहा कि ज्ञानवापी परिसर शैव संप्रदाय से संबंधित है. शैव धर्म से संबंधित है. यह सब चीजें तो मिलनी ही मिलनी है. जैसे त्रिशूल का, नंदी का मिलना, शिवलिंग का मिलना, स्वस्तिक का मिलना, कुंड का मिलना यह सब चीजें लाजमी है. शैव संप्रदाय का इतिहास मरोत्तर काल से भी पुराना है. काशी में भासीशैवों के समय से ही काशी में शैव संप्रदाय का विकास होने लगा था जो दूसरी तीसरी शताब्दी का माना जाता है. बाद में गुप्त काल में तो इसका विकास हो चुका था. जिसका इतिहास में महत्वपूर्ण प्रमाण है. बनारस में राजघाट की खुदाई में सर्व समाज के समय के मोहर भी प्राप्त हुए थे इस प्रकार के सबूत बताते हैं कि काशी में शैव संप्रदाय से संबंधित है.
फव्वारे का किसी इतिहास में नहीं मिलता है वर्णन
उन्होंने ज्ञानवापी में शिवलिंग मिलने पर मुसलमानों के फव्वारे वाले दावे पर दावा किया कि इस प्रकार का फव्वारा काशी के किसी भी उत्खनन में प्राप्त नहीं हुआ है. जबकि शिवलिंग की चर्चा पूरे पुराणों में है. साहित्यिक स्रोत भी हैं इतिहास में यह भी दर्ज है कि शिवलिंग को खंडित किया गया. मंदिरों को खंडित किया गया औरंगजेब के समय दूसरे मंदिरों को तोड़ा गया. महिला इतिहासकार प्रोफेसर अनुराधा सिंह का दावा है कि ज्ञानवापी का इतिहास सैकड़ों सालों का नहीं बल्कि हजारों साल पुराना है.
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