सीतापुर: सतयुग में एक बार वृत्रासुर नाम के एक दैत्य ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया. देवताओं ने देवलोक की रक्षा के लिए वृत्रासुर दैत्य पर अपने दिव्य अस्त्रों के प्रयोग किए, लेकिन देवताओं के सभी अस्त्र-शस्त्र वृत्रासुर के कठोर शरीर से टकराकर टुकडे़ टुकड़े हो रहे थे. अंत में देवराज इन्द्र सहित सभी देवताओं को अपने प्राण बचाकर देवलोक से भागना पड़ा. देवराज इन्द्र सहित सभी देवता ब्रह्मा, विष्णु और भगवान शिव के पास गए, लेकिन तीनों देवों ने कहा कि अभी संसार में ऐसा कोई अस्त्र शस्त्र नहीं है जिससे वृत्रासुर दैत्य का वध हो सके.
तीनों देवों की ऐसी बातें सुनकर देवराज इन्द्र मायूस हो गए. देवताओं की स्थिति देख भगवान शिव ने कहा कि पृथ्वी लोक पर एक महामानव हैं जिनका नाम है दधीचि. उन्होंने तप साधना से अपनी हड्डियों को अत्यंत कठोर बना लिया है. उनके आश्रम में जाकर संसार के कल्याण हेतु उनकी अस्थियों का आग्रह करो.
महर्षि दधीचि के अस्थि दान की कहानी
देव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का किया था दान
यह सुनकर देवराज इंद्र नैमिषारण्य में महर्षि दधिचि के आश्रम पहुंचे. देवराज इन्द्र ने महर्षि दधीचि से याचना करते है करते हुए कहा. हे भगवन एक वृत्रासुर नाम का दैत्य हम सभी का उत्पीड़न कर रहा है. हम सभी देवताओं को परेशान कर रहा है. इस की मृत्यु का रहश्य केवल आप की अस्थियों में विराजमान है. इस लिए अपनी अस्थियों का दान मुझे प्रदान करदे.
इतना सुनते ही महर्षि बोल उठे, मेरा अहोभाग्य है कि नश्वर अस्थियों की याचना देवराज इन्द्र करने आये हैं. मैं जनकल्याण, विश्वकल्याण, देवकल्याण हेतु अवश्य दान करूंगा. परन्तु मैंने समस्त तीर्थों के दर्शन और स्नान करने का संकल्प लिया है सभी तीर्थ स्नान करने के बाद मैं देवदर्शन प्रदिच्क्षणा करने के बाद ही मैं अपनी अस्थियों का दान दे दूंगा.
महर्षि दधीचि की अस्थियों से बना था वज्र
यह सुन इन्द्र सोच में पड़ गए, यदि महर्षि दधीचि सभी तीर्थ करने चले गये तो बहुत समय बीत जायेगा..इस पर देवराज इन्द्र ने संसार के समस्त तीर्थों सहित नभ, पाताल और मृत लोक के साथ ही साढे़ तीन कोटि देवताओं को नैमिषारण्य की 84 कोस की परिधि में अलग अलग स्थान प्रदान कर दिए. जिसके बाद फाल्गुन मास की प्रतिपदा को महर्षि दधीचि ने सभी तीर्थों और देवताओं के दर्शन किए, सभी तीर्थों का जल एक कुंड़ में मिलाकर कर स्नान किया. मान्यता है कि सभी तीर्थों के मिले जल के कारण इस स्थान का नाम मिश्रित भी पड़ा.
विश्वकर्मा ने बनाया बज्र
मान्यता है कि स्नान के बाद दधीचि जी ने अपने शरीर पर नमक और दही लगाकर देवराज इन्द्र की सुरा गाय से चटाया गया. जिसके बाद देवराज इन्द्र ने हड्डियों को लेजाकर विश्वकर्मा से कई अस्त्र निर्माण कराये. जिनके नाम गांडीव, पिनाक, सारंग और बज्र हुआ.
नैमिषारण्य में महर्षि दधिचि के आश्रम
कौन थे महर्षि दधीचि
ब्रह्माजी के मानस पुत्र अथर्वा थे, जो अथर्व वेद के मंत्र दृष्टा थे. जिनका विवाह महर्षि कर्दम की पुत्री भगवती शान्ता से हुआ था. अथर्व की पत्नी शान्ता ने दधीचि को सत्युग काल में भाद्र माह के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को अर्ध रात्रि से कुछ समय पूर्व जन्म दिया था. महर्षि दधीचि को दध्यंग्ड, अथर्वण (अथर्वनंदन) अश्वशिरा नाम से भी जाना जाता है. विध्या अध्ययन के पश्चात दधीचि का विवाह त्रृण बिन्दु राजा की पुत्री सुवर्चा से हुआ था. सुवर्चा के गर्भ से महर्षि पिप्पलाद का जन्म हुआ.
देवेश्वर इन्द्र द्वारा महर्षि दधीचि को मधु विद्या का ज्ञान इस शर्त पर कराया कि इस विद्या को किसी अन्य को बताने पर उनका सर काट डाला जायेगा. परन्तु महर्षि दधीचि ने इस विद्या को लोकोपकार के लिए अश्विनी कुमारों के कहने पर उन्हें अपने सिर को अलग कराकर घोड़े के सिर को स्थापित करा लिया और अश्विनी कुमारों को विद्या दे दी. इस से क्रोधित इन्द्र ने दधीचि के सर को धड़ से अलग कर दिया. जिसके बाद अश्विनी कुमारों ने दधीचि के पुनः उनके मानव मस्तिष्क को स्थापित कर दिया था. जिसके कारण उनका नाम अश्वशिरा पड़ा.
नैमिषारण्य में महर्षि दधिचि के आश्रम दधीचि तीर्थ परिसर में भगवान विष्णु व लक्ष्मी, भगवान शंकर पार्वती, माता अष्ट भुजा, बीर भद्र, बालाजी, राधाकृष्ण मंदिर, दधीचेश्वर महादेव मंदिर के अतिरिक्त महर्षि दधीचि, दधीचि के पिता अथर्वा, माता शान्ता, पत्नी सुवर्चा, पुत्र पिप्पलाद, बहन दधिमती के मंदिर स्थापित हैं.