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लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई: मुजफ्फर 'रज़्मी'

''ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने, लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई'' इस शेर की खुशबू देश-विदेश तक महक चुकी है. न जाने कितनी बार यह शेर हिंदुस्तान की संसद में भी गूंज चुका है. इस शेर के खालिक जनाब मुजफ्फर 'रज़्मी' साहब का ताल्लुक शामली के कस्बा कैराना से है. आज रज़्मी साहब की सातवीं पुण्यतिथि पर ईटीवी भारत उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है.

मुजफ्फर 'रज्मी' की आज सातवीं पुण्यतिथि है.

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Published : Sep 19, 2019, 11:29 AM IST

शामली: कैराना के प्रसिद्ध शायर मुजफ्फर इस्लाम 'रज़्मी' का जन्म 5 जून 1935 को हुआ था. वह रुड़की पालिका में कार्यालय अधीक्षक पद से 1992 में रिटायर हुए. बचपन से शायरी के शौकीन रहे रज्मी ने सऊदी अरब, दुबई और पाकिस्तान में आयोजित कई मुशायरों में अपनी शायरी का लोहा मनवाया. बड़े से बड़े शायर भी उनकी शायरी की तारीफ किए बिना खुद को नहीं रोक पाते थे. रज़्मी की शख्सियत को उनके कलाम के नजरिए से देखें, तो इस अजीम शायर की सादगी उसमें चार चांद लगाती रही है.

मुजफ्फर 'रज्मी' की आज सातवीं पुण्यतिथि है.

...कुछ ऐसी थी रज़्मी की शख्सियत
1974 में आल इंडिया रेडियो से रज़्मी साहब का शेर लम्हों ने खता की थी...ब्रॉडकास्ट हुआ, तो मुल्क भर में आम फेम शेर बन गया.
इसके बाद सबसे पहले इस शेर को अपनी तकरीर में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने पढ़ा. दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शव यात्रा के दौरान टीवी कमेंट्रेटर कमलेश्वर ने यह शेर बार-बार दोहराया. इन्द्र कुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद इस शेर को अपने संबोधन में प्रयोग किया.

पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने इस शेर को अपने संबोधन में पढ़ा था. पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई ने भी यह लोकसभा में पढ़ा था. रज़्मी का यह शेर लोकसभा की कार्यवाही में दर्ज है, जिसे कई संसद सदस्यों ने अनेक अवसरों पर पढा़ है.

74 वर्ष की उम्र में हुआ निधन
19 सितंबर 2012 में 74 वर्ष की आयु में मुजफ्फर 'रज़्मी' का इंतकाल हो गया. अपनी शायरी से शौहरत की बुलंदियों पर पहुंचने के बावजूद भी वे जीवन भर अपना आशियाना भी तैयार नहीं कर पाए थे. उन्होंने किराए के मकान में अपनी पूरी जिंदगी गुजार दी. अपने किराए के मकान में रहने पर उन्होंने कहा था...

''परिंदे भी रहते पराये आशियानों में
हमने उम्र गुजार दी किराए के मकानों में''

मुजफ्फर 'रज़्मी' की कुछ शायरी

इस राज को क्या जाने साहिल के तमाशाई
हम डूब के समझे हैं दरिया तिरी गहराई..

आंधियों का मुझे क्या खौफ मैं पत्थर ठहरा
रेत का ढेर नहीं हूं जो बिखर जाऊंगा..

किसी ने कत्ल किया और सजा किसी को मिली
ये फैसले तो गलत-फहमियां बढ़ाते हैं...

नजर हो लाख गहरी और बसीरत-आसरा फिर भी
नकाबों में कभी चेहरों का अंदाजा नहीं होता..

सलीके से सजाना आईनों को वरना ए रज़्मी
गलत रुख हो तो फिर चेहरों का अंदाजा नहीं होता..

मांगने वाला तो गूंगा था मगर
देने वाले तू भी बहरा हो गया..

मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाकी
अगली नस्लों को दुआ देके चला जाऊंगा..

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