लखनऊ: वर्षों से चली आ रही रीति रिवाजों की जंजीरों से जकड़ीं महिलाएं आज के दौर में उसे तोड़ती नजर आ रही हैं. यह जंजीरें जो नारी के कदमों को रोकती हैं. कोमलता और नाजुकपन स्त्री की स्वाभाविक पहचान है. स्त्री की नाजुक कलाई, हाथों में बेलन और घर की जिम्मेदारियां होने के बावजूद वे आज आसमान को छूती नजर आ रही हैं. स्त्री के अंदर न जाने कितनी देवियों के रूप नजर आते हैं. चाहे दुर्गा हो या, सरस्वती. जब अत्याचार बढ़ता है तो दुनिया का संहार करने के लिए काली का रूप भी धारण करती हैं. वेदों पुराणों में देवियों की प्राचीनतम और अद्भूत कहानियां हैं.
21 वीं सदी में महिलाएं आज पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं. हालांकि ऐसी तमाम घटनाएं सामने आती है जो पुरूषवादी दिखाई देती हैं. ऐसी ही एक कहानी लखनऊ की उषा विश्वकर्मा की है. जिसके दोस्त की बदनीयती ने कभी उनकी जिंदगी को अमावस के अंधेरे में तब्दील कर दिया था, लेकिन अदम्य जिजीविषा और साहस के दम पर न केवल उन्होंने जीवन के घुप अंधेरे को जीता बल्कि देश की 1 लाख 57 हजार लड़कियों को अपनी "निशस्त्र कला" के दम पर रक्त-चंडिका बना दिया है. जिससे बदनीयत आंखें भी खौफ खाती हैं.
निशस्त्र कला की आविष्कारक उषा
अमावस के घने अंधेरे साम्राज्य का विनाश प्रातः काल की उषा से प्रारंभ होता है. वैसे ही उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में दुष्कर्मियों के लिए काल का प्रतीक रेड ब्रिगेड लखनऊ बन चुकी है. लाल कुर्ता और काली चुन्नी पहनने वाली लड़कियों को देखकर हर कोई समझ जाता है कि यह उषा विश्वकर्मा की रेड ब्रिगेड की वह लड़कियां हैं जो निशस्त्र कला में माहिर हो चुकी हैं. बदनीयत पुरुषों को काबू करने वाली इस तकनीक का आविष्कार खुद उषा विश्वकर्मा ने किया है.