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जन्मदिन विशेष: केपी सक्सेना की रचनाओं में रचा बसा है लखनऊ का आम आदमी

आज ही के दिन यानी 13 अप्रैल को 1934 में मशहूर व्यंग्यकार केपी सक्सेना का जन्म हुआ था. उन्होंने लगान (2001), स्वदेश (2004), हलचल (2004), जोधा अकबर (2008) जैसी सुपरहिट फिल्में लिखी. इसके लिए उन्हें पद्म श्री और फिल्म फेयर जैसे पुरस्कार मिले.

केपी सक्सेना
केपी सक्सेना

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Published : Apr 13, 2021, 8:50 AM IST

लखनऊः मशहूर व्यंग्यकार केपी सक्सेना ने लगान (2001), स्वदेश (2004), हलचल (2004), जोधा अकबर (2008)' जैसी सुपरहिट फिल्में दी. उन्हें पद्म श्री, फिल्म फेयर जैसे पुरस्कार मिले. यह सब सोचने में इतना अच्छा लगता है. लेकिन, कम लोग ही यह जानते हैं कि इस सितारे को आसमां तक पहुंचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा. आज ही के दिन यानी 13 अप्रैल को 1934 में उनका जन्म हुआ था.

प्रकाशकों ने किया था अस्वीकार
केपी सक्सेना का जन्म सन् 1934 में बरेली में हुआ था. जब वह केवल 10 वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया. इसके बाद उनकी मां उन्हें लेकर बरेली से लखनऊ चली आईं. यहीं उन्होंने बॉटनी में स्नातकोत्तर एमएससी की और कुछ समय तक लखनऊ के एक कॉलेज में अध्यापन कार्य किया. उन्हें लेखन की चाहत थी, लेकिन शुरुआती दौर में उनकी रचनाओं को प्रकाशकों ने अस्वीकार कर दिया, लेकिन बाद में उनकी लेखनी को सिर आंखों पर बिठाया. उनकी हिन्दी, उर्दू और अवधी पर समान रूप से पकड़ थी. साहित्य में इनके योगदान के लिए 2000 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा.

'व्यंग्य से शुरू होकर गंभीर मोड़ लेती हैं केपी सक्सेना की रचनाएं'
वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल रस्तोगी बताते हैं कि केपी सक्सेना की रचनाएं व्यंग्य से शुरू होकर सीरियस मोड पर खत्म होती हैं. 'सखी रे मनभायो मदनलाल', 'पुराने माल के शौकीन' और 'बैंक लॉकर' जैसी बहुचर्चित कविताएं इसकी नजीर हैं. उनकी कविताओं और नाटकों में गढ़े गए मुहावरे और संवाद लोगों की जुबान पर चढ़ गए. किसी के मरने पर 'बेचारे खर्च हो गये' का मुहावरा खासा लोकप्रिय हुआ. इसके अलावा 'बहुत अच्छे', 'लपझप' और 'जीते रहिये' जैसे उनके लिखे संवाद खूब इस्तेमाल किए जाने लगे. अकसर केपी अपनी लेखनी में नये-नये मुहावरे खुद गढ़ते थे. जैसे स्वदेश फिल्म का एक संवाद - 'अपने ही पानी में पिघलना बर्फ का मुकद्दर होता है'.

उनकी लेखनी में दिखता है आम आदमी
केपी की रचनाएं लखनऊ के इर्दगिर्द घूमती हैं. यहां का मध्यवर्गीय जीवन उसमें साफ नजर आता है. उन्होंने शुरुआत उपन्यास से की, लेकिन बाद में व्यंग्य लिखना शुरू किया. भारतीय रेलवे में नौकरी करने के अलावा हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के लिये व्यंग्य लिखा करते थे. पांच से अधिक फुटकर व्यंग्य की पुस्तकों के अलावा कुछ व्यंग्य उपन्यास उनकी धरोहर है. इनमें, नया गिरगिट, कोई पत्थर से, मूंछ-मूंछ की बात, रहिमन की रेलयात्रा, रमइया तौर दुल्हिन जैसी कई रचनाएं शामिल हैं.

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और ऐसे छोड़ गए साथ
जीवन के अन्तिम समय में उन्हें जीभ का कैंसर हो गया था, जिसके कारण उन्हें 31 अगस्‍त 2013 को लखनऊ के एक निजी अस्‍पताल में भर्ती कराया गया. जहां 31 अक्टूबर 2013 सुबह साढ़े 8 बजे दम तोड़ दिया.

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