लखनऊ :आम की मिठास के लिहाज से पूरी दुनिया में मशहूर मलिहाबाद की सरजमी पर देश के मशहूर इंकलाबी शायर जोश मलिहाबादी का जन्म मलिहाबाद में हुआ था. जोश ने आम के साथ-साथ शायरी की बगिया उगाई, जिसकी महक पूरे देश में फैली थी और मलिहाबाद को एक नई पहचान दिलाई थी. भारत सरकार ने पदम विभूषण से सम्मानित किया. आजादी के बाद देश के बंटवारे में वह पाकिस्तान चले गए थे और परिवार के लोग मलिहाबाद में ही रह गए थे. अंत समय इस्लामाबाद पाकिस्तान में उनकी मृत्यु हो गई थी.
सबसे मशहूर इंकलाबी शायर-
काम है मेरा तग़य्युर, नाम है मेरा शबाब
मेरा नारा- इंक़लाब-ओ-इंक़लाब-ओ-इंक़लाब
उर्दू के मशहूर शायर रहे जोश मलिहाबादी का आज जन्मदिन है. उर्दू अदूब के मशहूर शायर जोश मलिहाबादी का आज जन्मदिन है. उनका जन्म 5 दिसंबर 1898 को मलिहाबाद में हुआ था. जोश मलिहाबादी एक ऐसे शायर हुए जिन्होंने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों को खिलाफ अपनी कलम उठाई. उन्होंने ऐसे शेर कहने शुरू किए जो उस वक्त आम आदमी के नारे बन गए. इसलिए उन्हें इंकलाबी शायर कहा गया.
जोश का असली नाम था शबीर हसन खान
वह गज़लें और नज्में तखल्लुस 'जोश' के नाम से लिखते थे. साथ ही उन्होंने अपने जन्म स्थान का नाम मलिहाबादी भी अपने तखल्लुस में जोड़ दिया. उनकी पढ़ाई घर पर ही हुई. घर पर ही उन्होंने उर्दू-फारसी की तालीम हासील की. फिर अंग्रेजी तालीम हासिल करने के लिए वे लखनऊ गए. इसके बाद जोश आगरा के सेंट पीटर्स कॉलेज गए. बताया जाता है कि वह तालीम हासिल करने के लिए अलीगढ़ भी गए थे, लेकिन उनकी पढ़ाई मुकम्मल नहीं हो सकी, लेकिन जोश में शायरी की लग्न थी. 23-24 साल की उम्र में ही जोश, उमर खय्याम और हाफिज की शायरी को करीब से परखने लगे. आपको बता दें कि दोनों ऐसे शायर थे, जिनकी शायरी में विद्रोही की बात झलकती थी. इन्हीं बगावती तेवरों को हथियार बनाकर जोश ने इंकलाबी शेर कहने शुरू किए.
इस्लामाबाद में ली आखिरी सांस
देश का जब बंटवारा हुआ तो वह पाकिस्तान चले गए. पाकिस्तान के इस्लामाबाद में 1982 में उन्होंने आखिरी सांस ली. बताया जाता है कि पाकिस्तान जाने के बाद वह दो-तीन बार भारत आए थे. आजादी की जंग में उनकी नज़्मों का बोलबाला रहा. कहते हैं कि युवा उनकी नज़्में गाते-गाते जेल चले जाते थे. जोश उन चुनिंदा शायरों में थे, जो अपने कलाम में बेहद मुश्किल उर्दू अल्फाज़ का इस्तेमाल करते हैं. उर्दू पर उनकी बेमिसाल पकड़ थी.
'भारत की मिट्टी में दफनाया जाऊं
जोश मलीहाबादी के भतीजे सिराज वली ने बताया कि हमारे मरहूम चचा जान जोश मलिहाबादी का जन्म सन 1898 मलिहाबाद कस्बे में बड़े महल में हुआ था. जोश साहब ने आजमत के लिए निजाम हैदराबाद गए और उनके यहां नौकरी की. जिसके बाद वह लखनऊ में आकर रहने लगे. सन 1958 में वह भारत छोड़ पाकिस्तान चले गए. मरते दम तक उनकी यह ख्वाहिश थी कि 'जब भी मेरा इन्तेकाल हो तो मैं भारत की मिट्टी में दफनाया जाऊं'. मगर उनकी यह ख्वाहिश पूरी न हो सकी. लेकिन मलिहाबाद की मिट्टी से उनकी कब्र बनाई गई. उन्होंने बहुत सी किताबें लिखीं, जिसमें यादों की बारात और नज्में जंगल की शहजादी, गुलबदनी देश से लेकर विदेश तक बहुत लोकप्रिय हुई.
जोश मलीहाबादी के परपोते फिरोज खान उर्फ सुरूर मलीहाबादी ने जोश मालिहाबादी का नम आंखों से जिक्र करते हुए बताया कि जोश साहब को शायरी विरासत में मिली थी. जब जोश मलिहाबादी का नाम उभरा तो उस समय उर्दू शायरी में अल्लामा इकबाल की हुकूमत थी. जोश का कमाल ये है कि उन्होंने अल्लामा इकबाल की गैर मौजूदगी में अपने आपको तस्लीम करवाया. भारत से पाकिस्तान जाने के बाद वह कभी खुश नहीं रहे. हिंदुस्तान को याद करते हुए इस गम में कुछ नज्म कहे...
'जनों फ़र्जन की व बस्तगी ने वतन सी चीज को आखिर छुड़ाया
रहा मैं हिन्द की नजरों में मुस्लिम बना काफिर जो पाकिस्तान आया'
इन्कलाबी शायर जोश मलिहाबादी का आज जन्मदिन है. जोश मलीहाबादी ने अपनी शायरी व नज्मों से देश ही नहीं पूरे विश्व में एक अलग ही मुकाम हासिल किया, जिससे मलिहाबाद के नाम में चार चांद लग गए. मालिहाबाद के लोग आज भी अपने इन्कलाबी शायर को याद करते हैं.