लखनऊः'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है.' मूल रूप से बिस्मिल अजीमाबादी की लिखी ये पंक्तियां आजादी के तराने के तौर पर गाई जाने वाली यह पंक्तियां हमें स्वतंत्रता संग्राम के लाखों बलिदानियों की याद दिलाती हैं. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की जब भी बात आती है तो तमाम महान क्रांतिकारियों के चेहरे अपने आप जहन में उभरने लगते हैं. इन्हीं में से एक अविस्मरणीय नाम है राम प्रसाद बिस्मिल. राम प्रसाद बिस्मिल उन क्रांतिकारियों में शुमार थे, जिन्होंने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूमा. बिस्मिल काकोरी कांड (kakori kand) के सूत्रधार में से एक थे. इससे पहले हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन (hindustan republican association) की स्थापना और मैनपुरी योजना जैसे कामों में बिस्मिल की अग्रणी भूमिका रही.
11 जून को हुआ था जन्म
राम प्रसाद का जन्म 11 जून 1897 (11 june 1897) को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर (shahjanpur) जिले में हुआ था. उनकी माता मूलारानी और पिता मुरलीधर थे. बड़े होकर उन्होंने राम, अज्ञात और बिस्मिल आदि नामों से लिखना शुरू किया. धीरे-धीरे उन्हें बिस्मिल उपनाम मिल गया. वह राम प्रसाद बिस्मिल नाम से प्रसिद्ध हो गए. 1924 में राम प्रसाद बिस्मिल ने योगेश चंद्र चटर्जी, चंद्रशेखर आजाद, और शचींद्रनाथ सान्याल आदि के साथ मिलकर ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की स्थापना कानपुर में की थी. इस संस्था का उद्देश्य पार्टी सशस्त्र क्रांति के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत को समाप्त करना था. बाद में भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे क्रांतिकारी भी उनकी इस संस्था से जुड़े. हालांकि बिस्मिल की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका सशस्त्र क्रांति तक ही सीमित नहीं थी. उन्होंने साहित्य के माध्यम से भी युवाओं में जोश भरने का काम किया. वह विशेषतः हिंदी और उर्दु भाषा में कविताएं लिखते थे. राम प्रसाद आर्य समाज से भी जुड़े रहे. दावा तो यहां तक किया जाता है कि अपने गुरु स्वामी सोमदेव के माध्यम से वह लाला हरदयाल जैसे क्रांतिकारियों से भी गुपचुप रूप से जुड़े थे. सन 1915 में उन्होंने भाई परमानंद को फांसी की सजा सुनाए जाने की बात सुनी तो आक्रोश से भर उठे. उस समय उनकी उम्र महज 18 साल थी. उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मेरा जन्म नामक कविता लिखी.
ऐसा था बचपन
जब उनके पिता मुरलीधर ने उन्हें शाहजहांपुर के इस्लामिया स्कूल में भर्ती कराया गया. जैसे-जैसे वे बड़े हुए, वे बुरे छात्रों के संपर्क में आ गए और रोमांटिक कविता की किताबें और सस्ते उपन्यास पढ़ने लगे, जिससे उनका शिक्षा प्रभावित हुई. जब वे उर्दू की सातवीं कक्षा में दो बार अनुत्तीर्ण हुए, तो उन्हें शहर के मिशन स्कूल नामक एक अंग्रेजी स्कूल में भर्ती कराया गया. मिशन स्कूल से फर्स्ट डिवीजन से 8वीं पास करने के बाद उनका दाखिला शाहजहांपुर के सरकारी स्कूल में हो गया. इस स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने अपना उपनाम 'बिस्मिल' रखा और देशभक्ति कविता लिखना जारी रखा. वह अपने सहपाठियों के बीच बिस्मिल नाम से लोकप्रिय हो गए.
ऐसे हुई क्रांति की शुरुआत
बिस्मिल 7वीं कक्षा में थे, जब उनके पिता मुरलीधर ने उन्हें एक मौलवी के संपर्क में रखा, जो उन्हें उर्दू पढ़ाते थे. बिस्मिल को भाषा इतनी पसंद थी कि उन्होंने उर्दू उपन्यास पढ़ना शुरू कर दिया. बहुत कम उम्र में ही उनका परिचय आर्य समाज से हो गया था. वे इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने जीवन भर अविवाहित रहने की कसम खाई और उन्होंने ऐसा ही किया. चूंकि बिस्मिल राष्ट्रवादी आंदोलन से काफी प्रभावित थे, इसलिए वे पंडित गेंदा लाल दीक्षित के नेतृत्व वाले एक क्रांतिकारी समूह में शामिल हो गए. तब वे केवल 19 वर्ष के थे. क्रांतिकारी भाई परमानंद की मौत की सजा का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन को खत्म करने के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फैसला किया. बाद में परमानंद की मौत की सजा को कम कर दिया गया. बिस्मिल कॉलेज में थे जब उनकी मुलाकात अशफाकउल्लाह खान से हुई, जो शाहजहांपुर से भी थे. वे जीवन भर के लिए दोस्त बन गए और दाेनाें ने मिलकर ब्रिटिश विरोधी गतिविधियां शुरू की. बिस्मिल ने 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जाेर कितना बाज़ू-ए-कातिल में है' कविता को अमर बना दिया. यह मूल रूप से 1921 में पटना के एक उर्दू कवि बिस्मिल अजीमाबादी द्वारा लिखा गया था. बिस्मिल ने अपने दोस्तों, अशफाकउल्लाह खान, रोशन सिंह और अन्य लोगों के साथ 1927 में जेल में बंद होने पर 'मेरा रंग दे बसंती चोला' गीत लिखा था. उन्होंने जेल में काकोरी के शहीद नामक एक पुस्तक लिखी, जिसे उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले पूरा किया. राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई थी. वह केवल 30 वर्ष के थे.
मैनपुरी षड़यंत्र
1915-16 में ही यह मैनपुरी के गेंदालाल से मिले. उनके साथ तमाम युवाओं को जोड़कर शिवाजी समिति से हाथ मिलाया. साथ ही मातृवेदी नामक नयी संस्था के निर्माण में भी प्रमुख भूमिका रही. इसके बाद इस संस्था ने देशवासियों के नाम संदेश नामक पत्रक गुपचुप तरीके से बांटना शुरू किया. 28 जनवरी 1918 को 'बिस्मिल' ने 'देशवासियों के नाम संदेश' (देशवासियों के लिए एक संदेश) शीर्षक से एक पैम्फलेट प्रकाशित किया और इसे अपनी कविता "मैनपुरी की प्रतिज्ञा" (मैनपुरी का व्रत) के साथ जनता के बीच वितरित किया. पार्टी के लिए धन इकट्ठा करने के लिए 1918 में तीन बार लूटपाट की गई. पुलिस ने मैनपुरी और उसके आसपास उनकी तलाशी ली. जब वे दिल्ली और आगरा के बीच एक और लूट की योजना बना रहे थे, तो पुलिस की एक टीम आ गई और दोनों तरफ से फायरिंग शुरू हो गई. बिस्मिल यमुना नदी में कूद गए और पानी के भीतर तैरने लगे. पुलिस को लगा कि वे मुठभेड़ में मारे गये हैं. दीक्षित को उसके अन्य साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और उसे आगरा के किले में रखा गया, जहां से बाद में दीक्षित भाग गये और दिल्ली में भूमिगत रहने लगे. उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया गया था. इसे ब्रिटिश के खिलाफ 'मैनपुरी षडयंत्र' के रूप में जाना जाता है. 1 नवंबर 1919 को मैनपुरी के न्यायिक मजिस्ट्रेट बी.एस. क्रिस ने सभी आरोपियों के खिलाफ फैसला सुनाया और दीक्षित और बिस्मिल को भगोड़ा घोषित कर दिया. तमाम कोशिशों के बाद भी पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी. बिस्मिल ने कई हिंदी कविताएं लिखीं- उनमें से अधिकांश देशभक्तिपूर्ण थीं. 'सरफरोशी की तमन्ना' कविता राम प्रसाद बिस्मिलो की सबसे प्रसिद्ध कविता है.
काकोरी कांड
9 अगस्त, 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल ने साथी अशफाकउल्ला खान और अन्य लोगों के साथ लखनऊ के पास काकोरी में ट्रेन को लूटने की योजना को अंजाम दिया. क्रांतिकारियों द्वारा काकोरी में 8-डाउन सहारनपुर लखनऊ पैसेंजर ट्रेन को रोकने के बाद, अशफाकउल्ला खान, सचिंद्र बख्शी, राजेंद्र लाहिड़ी और राम प्रसाद बिस्मिल ने गार्ड को कब्जे में कर लिया और खजाने के लिए नकदी लूट ली. हमले के एक महीने के भीतर नाराज औपनिवेशिक अधिकारियों ने एक दर्जन से अधिक एचआरए सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक, काकोरी षड्यंत्र ने ब्रिटिश प्रशासन को हिला कर रख दिया था. इस योजना को सरकार से संबंधित धन को सुरक्षित करने और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों को धनराशि प्रदान करने के लिए क्रियान्वित किया गया था. तथाकथित काकोरी षडयंत्र में मुकदमे के बाद इन चारों क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनाई गई.
इसे भी पढ़ेंः दिल्ली में योगी : मंत्रिमंडल विस्तार की तैयारी या असंतोष दबाने की कवायद?