लखनऊ : मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पूरी तत्परता, उच्चाधिकारियों के नियमित दिशा निर्देशों के बावजूद प्रदेश में बेसहारा पशुओं की हालत उतनी नहीं सुधरी है, जिसकी अपेक्षा की जा रही थी. पिछले दिनों मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्रा ने नोडल अधिकारियों के माध्यम से प्रदेश के सात जिलों के गोवंश आश्रय का मौका मुआयना करवाया, जिनकी रिपोर्ट संतोषजनक नहीं मिली. मुख्य सचिव खुद इससे बहुत आहत थे. गोवंश संरक्षण के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर रही सरकार को अपेक्षित परिणाम न मिलना निश्चित रूप से निराशाजनक है. तथ्य बताते हैं कि आज भी गांव और कस्बों में छुट्टा पशुओं का रेला कहीं भी देखा जा सकता है. हकीकत यह है कि अब तक बहुसंख्य ग्रामीण खुद को इन सरकारी योजनाओं से जोड़ नहीं पाए हैं, या यूं कहें कि निचले स्तर पर बैठा सरकारी तंत्र इन बातों के लिए कतई गंभीर ही नहीं है. जो भी हो योगी सरकार के छह साल पूरे हो चुके हैं और एक समस्या है, जो कम होने का नाम नहीं ले रही है.
निराश्रित पशुओं की समस्या यथावत, लाख कोशिशें भी नहीं आ रहीं काम
प्रदेश में अधिकारियों को दिशा निर्देश के बाद बेसहारा पशुओं की हालत अभी भी उतनी नहीं सुधरी है. आखिर क्यों लाख कोशिशों के बावजूद भी परिणाम निराशाजनक हैं?. पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...
कुछ दिन पूर्व ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वरिष्ठ अधिकारियों की एक बैठक बुलाई थी. बैठक में उच्च अधिकारियों ने मुख्यमंत्री को बताया कि किसानों को गोवंश से जोड़ने के लिए अनेक लाभकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं. मौजूदा वक्त में प्रदेश में 6700 से ज्यादा गोवंश संरक्षण स्थल चलाए जा रहे हैं, जिनमें लगभग 11:30 लाख पशुओं को रखा गया है. बीते माह 31 मार्च तक सवा लाख गोवंशीय पशुओं को संरक्षित किया गया है. इन सब प्रयासों के बावजूद समस्या यथावत है. मुख्य सचिव की रिपोर्ट बताती है कि गोवंश आश्रय स्थलों पर कुपोषण के साथ-साथ चारा, पानी, दवा आदि का उचित प्रबंध नहीं है. जिन जिलों में खामियां पाई गई हैं, उनमें लखनऊ, देवरिया, कन्नौज, हाथरस, हमीरपुर, सोनभद्र और बागपत के गौ संरक्षण स्थल शामिल हैं. मुख्य सचिव दुर्गाशंकर मिश्रा ने इन गो आश्रय स्थलों पर बिजली कनेक्शन, सोलर लाइट, छायादार पौधे, सोलर पंप, छाया के लिए उचित सेट और भूसा के इंतजाम के लिए दिशा निर्देश दिए हैं. स्वाभाविक है यह सभी चीजें प्राथमिक आवश्यकता हैं. इनके बिना पशु कैसे रहेंगे. हास्यास्पद बात क्या है कि सभी गोवंश संरक्षण स्थल भूसे के लिए दानकर्ताओं पर निगाहें गड़ाए बैठे हैं. दान मिले, तो चारा बैंक बने. सोचने की बात यह है कि यदि किसानों और ग्रामीणों के पास पशुपालन के लिए जरूरी चारा होता, तो वह अपने पशुओं को छुट्टा क्यों छोड़ते हैं!
आपको याद होगा कि कुछ माह पहले जिला बेसिक शिक्षा अधिकारियों ने शिक्षकों के लिए आदेश जारी किया था कि वह अपने क्षेत्र के प्रधान को भूसा दान करें. सरकार अन्य स्रोतों से भी भूसा जुटाने की कोशिश करती है, पर असल समस्या तो चारा संकट की ही है. सरकार ने तो हर परिवार को एक गोवंश पालने पर लगभग साढ़े ₹3500 का अनुदान देने की घोषणा की है. यही नहीं गो वंशीय पशुओं की सेवा कर रहे सभी परिवारों को ₹900 प्रति माह सीधे खाते में ट्रांसफर किए जा रहे हैं. अंत्येष्टि स्थलों पर लकड़ी के बजाय 50% उपलों का उपयोग करने के दिशा निर्देश भी दिए गए हैं. सरकार विभिन्न स्तरों पर दुग्ध उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन योजनाएं भी चला रही है.
इस संबंध में प्रगतिशील किसान और पशुपालन रामेश्वर दयाल कहते हैं कि 'जब तक क्षेत्र के लिए उपलब्ध पानी और मिट्टी के अनुसार खेती नहीं होगी, तब तक इस समस्या का समाधान कठिन है. वह कहते हैं कि पहले लखनऊ और आसपास के जिलों में गेहूं, सरसों, जौ, बाजरा, मक्का, अरहर आदि की खेती की जाती थी. इन सब फसलों में बीजों के अतिरिक्त बचने वाला पदार्थ पशुओं का भोजन ही होता था. अब ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की हवस में लोग गन्ना और केले की खेती कर रहे हैं. इससे पशुओं का चारा खत्म हो गया है और भूगर्भ जल दिनों दिन और रसातल में जा रहा है. आखिर कोई तो देखे कि कौन सा क्षेत्र किस तरह की फसलों के लिए उपयोगी है. इसके लिए मशवरा दें और जरूरी हो तो पाबंदी लगाएं. हमारा भारी-भरकम कृषि विभाग जानें क्या करता है कि समस्या का समाधान नहीं निकल रहा.'
यह भी पढ़ें : लखनऊ में सर्वोदय विद्यालय के शिक्षकों की ट्रेनिंग शुरू, जेईई मेंस और नीट की मुफ्त शिक्षा