लखनऊ : महानगरों में ग्रामीण अचलों से हजारों लोग रोजगार के लिए आते हैं. इनमें कुछ सफल होते हैं, तो कुछ असफल. तमाम ऐसे भी होते हैं, जिनका संघर्ष जीवन भर चलता है. यह संघर्ष तब और कठिन हो जाता है, जब कोई 21 वर्ष की विवाहिता घर-बार छोड़कर अंजान शहर में अपने पैरों पर खड़े होने का संकल्प लेकर आ जाए. यह कहानी ऐसी ही एक जीवट महिला की है, जिन्होंने दिखा दिया कि नारी अबला नहीं, सबला है.
10 साल बड़े युवक से हुआ था विवाह
गोंडा जिले में स्थित कटराबाजार ब्लॉक के बोधापुरवा गांव में 45 साल पहले 16 साल की कुंवर का विवाह अपने से 10 वर्ष बड़े राम सिंह से हुआ था. खेलने-कूदने की उम्र में वैवाहिक जीवन के झंझावतों और कलह ने कुंवर को दुख तो दिया ही, उन्हें अवसाद के दलदल में भी ढकेल दिया. कुंवर का संघर्ष और प्रताड़ना का दौर चल ही रहा था कि उन्होंने एक पुत्री का जन्म दिया. वह किसी तरह इस नारकीय जीवन से मुक्ति चाहती थीं, पर कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था. कुंवर की सास को उनकी मनोदशा का अंदाजा था. इसलिए एक दिन उन्होंने अपनी सास से दिल की बात कह डाली. उन्होंने अपनी सास को बताया कि यह पीड़ा अब उनसे सही नहीं जाती. इस पर सास ने उन्हें घर छोड़कर भाग जाने की सलाह दी. यहीं से कुंवर के जीवन संघर्ष की गाथा आरंभ हो गई.
21 वर्ष की उम्र में घर छोड़ शुरू किया संघर्ष
महज 21 वर्ष की उम्र में घर छोड़कर कुंवर राजधानी लखनऊ आ गईं. उस समय उनके पास खाने-पीने तक के लिए पैसे नहीं थे. भटकते हुए वह एक स्कूल में पहुंच गईं. वहां उन्होंने आया की नौकरी के लिए आग्रह किया. उन्होंने स्कूल मालिक से वादा किया कि यदि उन्हें वहीं रहने के लिए जगह मिल जाए, तो वह विद्यालय के लिए पूरे मन से मेहनत करेंगी. विद्यालय प्रबंधक उनके उत्साह और परिस्थितियों को देखकर पसीज गए. इसके बाद विद्यालय प्रबंधक ने उन्हें आसरा दे दिया. हालांकि, कुंवर के लिए यह नौकरी एक पड़ाव भर थी. उन्हें इस शहर में अपना खुद का आशियाना भी बनाना था. सिर्फ इस काम से उनकी जरूरतें पूरी होती दिखाई नहीं दे रही थीं. अपने सपने को साकार करने के लिए उन्होंने और कठोर परिश्रम करने का निर्णय किया. उन्होंने भोर में ही उठकर मजदूरों के लिए खाना बनाना शुरू किया. इससे उन्हें अतिरिक्त आमदनी होने लगी.