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यूपी विधानसभा चुनावः सोशल मीडिया से सड़क पर नहीं उतरी बसपा तो कहीं लग न जाए सदमा

बसपा की नीली बयार सिर्फ चुनाव के दौरान ही नजर आती है. इसके पूर्व न बसपा प्रमुख मायावती विपक्ष की भूमिका निभाती नजर आती हैं और न ही पार्टी के कार्यकर्ता. यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से पार्टी को आम चुनावों में नुकसान हुआ है.

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Published : Jun 15, 2021, 4:15 PM IST

Updated : Jun 17, 2021, 7:56 AM IST

सोशल मीडिया से सड़क पर नहीं उतरी बसपा तो कहीं लग न जाए सदमा
सोशल मीडिया से सड़क पर नहीं उतरी बसपा तो कहीं लग न जाए सदमा

लखनऊः बहुजन समाज पार्टी की मुखिया, पूर्व मुख्यमंत्री मायावती हों या उनकी पार्टी के अन्य पदाधिकारी, जनता के मुद्दों पर इनकी भूमिका कभी विपक्षी दल वाली दिखाई नहीं देती. बसपा प्रमुख ज्यादातर राजनैतिक गलियारों से दूर रहती हैं और सिर्फ ट्वीट या मीडिया में जारी बयानों के माध्यम से अपनी बात रखती आ रही है. इसके चलते बसपा लगातार कमजोर होती जा रही है.

पिछले एक दशक में बसपा नहीं उतरी है सड़क पर

पिछले एक दशक की अगर बात करें तो बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख या उनके नेता किसी मुद्दे को लेकर सड़क पर संघर्ष करते हुए दिखाई नहीं दिए हैं. यही कारण है कि धीरे-धीरे करके लोगों का रुझान बहुजन समाज पार्टी की ओर से कम होता चला जा रहा है, और बसपा लगातार कमजोर हो रही है. सदन में भी बसपा की सियासी ताकत लगातार कम हो रही है. राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि बसपा प्रमुख पार्टी में केवल प्रमुख होने का कल्चर को ही आगे बढ़ा रही है. वह मीडिया में बयानों के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं, लेकिन जब बात सड़क पर प्रदर्शन की आती है तो न वह दिखाई देती हैं न तो पार्टी का कोई पदाधिकारी, सांसद, विधायक या अन्य जिला स्तर पर नेता या कार्यकर्ता नजर नहीं आते.

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लगातार कमजोर हो रही है बसपा

2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी की स्थिति अब दयनीय होती जा रही है. अगर यही स्थिति रही और कुछ खास चमत्कार और रणनीति न बन पाई तो 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में बसपा प्रमुख मायावती को बड़ा सियासी नुकसान उठाना पड़ सकता है. बहुजन आंदोलन से जुड़े रहे तमाम नेता धीरे-धीरे बसपा से दूर होते जा रहे हैं. इससे बसपा का अस्तित्व ही संकट में नजर आने लगा है. बावजूद इसके बसपा पुराने घटनाक्रम से सबक लेती हुई नजर नहीं आ रही हैं.

बसपा पार्टी कार्यकर्ता.

सपा से समझौता भी फायदेमंद नहीं रहा

2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान मायावती ने एक बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम को अंजाम दिया था. अपने धुर विरोधी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन का दांव चल पार्टी की साख बचाने की कोशिश की थी, लेकिन यह दांव भी कुछ काम न आ सका. गठबंधन में भले ही मायावती को अधिक सीट न मिली हो, लेकिन समाजवादी पार्टी का जो आधार वोट बैंक था. वह जरूर मायावती के साथ आया और 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 10 सीटों पर संतोष करना पड़ा.

बसपा का पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में प्रदर्शन

साल सीटों पर लड़ा चुनाव जीतीं सीटें वोट प्रतिशत
1991 386 12 9.44
1993 164 67 11.12
1996 296 67 19.64
2002 401 98 23.06
2007 403 206 30.43
2012 403 80 25.91
2017 403 19 22.2

संगठन और नेताओं को संभालना बड़ी चुनौती

बहुजन समाज पार्टी 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव को लेकर अपने संगठन को धरातल तक मजबूत करने को लेकर चितिंत है, वहीं कैसे अपनी पार्टी नेताओं को बचाकर उनका चुनाव में उपयोग किया जा सके. इसको लेकर उनका चिंतित होना भी स्वाभाविक है. बहुजन समाज पार्टी में लगातार उठापटक जारी है और पिछले काफी समय से नेता बसपा से दूर हो रहे हैं. पार्टी के वोट बैंक नेता रहे स्वामी प्रसाद मौर्य (पूर्व कैबिनेट मंत्री और मौर्य समाज के बड़े नेता), बृजेश पाठक और नसीमुद्दीन सिद्दीकी पार्टी छोड़ चुके हैं.

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अभी पिछले दिनों बसपा मुख्यालय पर मायावती ने समाज के तमाम वर्ग से जुड़े लोगों की भाईचारा कमेटियों के साथ बैठक की. संगठन को धरातल तक यानी बूथ स्तर तक मजबूत करने को लेकर दिशा-निर्देश भी दिए. कहा कि जो लोग गद्दार हैं उनसे दूर रहा जाए. कैडर के लोगों पर भरोसा किया जाए और बूथ स्तर तक संगठन को मजबूत करके विधानसभा चुनाव की तैयारी की जाए.

फिलहाल मायावती का जो चुनावी समीकरण नजर आता है. वह दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण समीकरण के आधार पर चुनाव मैदान में उतरना चाहती हैं. उनकी राजनीति इसी समीकरण के इर्द गिर्द नजर आती है. देखना यह भी दिलचस्प होगा कि यह समीकरण बसपा के लिए कितना फायदेमंद होता है.

Last Updated : Jun 17, 2021, 7:56 AM IST

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