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पाक्सो एक्ट के मामले में हाईकोर्ट ने दोबारा बयान दर्ज कराने की मांग को किया खारिज - इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने बहराइच जनपद में साल 2016 में दर्ज हुए रेप और पाक्सो एक्ट के एक मामले में पीड़िता की तरफ से दायर खुद के पुनर्परीक्षण की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया है. इस मामले में लोवर कोर्ट में ट्रायल के दौरान अपने बयान से पटलते हुए पीड़िता ने दोबारा बयान दर्ज कराने की मांग की थी. जिसे हाईकोर्ट ने भी खारिज कर दिया है.

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच

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Published : May 27, 2021, 12:54 PM IST

लखनऊ: रेप व पॉक्सो एक्ट के एक मामले के ट्रायल के दौरान पीड़िता ने पहले तो अभियुक्त के खिलाफ गवाही दे दी, लेकिन बाद में वह अपने बयान से पलटते गई और अभियुक्त को पहचान नहीं पाने की बात कहते हुए, खुद के पुनर्परीक्षण की मांग की. जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया. पीड़िता ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के समक्ष चुनौती दी. हाईकोर्ट ने भी पीड़िता की याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उसने सही इरादे से पुनर्परीक्षण की मांग नहीं की है. यह आदेश न्यायमूर्ति आलोक माथुर की एकल पीठ ने पीड़िता की पुनर्विचार याचिका पर दिया.

क्या है पूरा मामला
मामला बहराइच जनपद के जरवल रोड थाने का है. वर्ष 2016 में पीड़िता के पिता ने अभियुक्त अजय कुमार के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 व पॉक्सो एक्ट की धारा 3/4 के तहत एफआईआर दर्ज कराई थी. पीड़िता ने आरोप लगाया कि जब वह शौच के लिए गई थी तो अभियुक्त ने अकेला पाकर उसके साथ दुष्कर्म किया. पुलिस व मजिस्ट्रेट के समक्ष दिये बयान में पीड़िता ने आरोपी की पुष्टि की व थाने में अभियुक्त की पहचान भी की. 19 अक्टूबर 2018 को पीड़िता ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष भी अभियुक्त के खिलाफ बयान दिया व उसकी पहचान की. लगभग ढाई साल बाद पीड़िता की ओर से ट्रायल कोर्ट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 311 के तहत एक प्रार्थना पत्र दाखिल करते हुए, उसका बयान पुनः दर्ज कराने की मांग की गई. जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया.

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में क्या कहा
हाईकोर्ट के समक्ष पीड़िता के अधिवक्ता का कहना था कि पीड़िता अभियुक्त को पहचान नहीं सकी थी व जब उसे पता चला कि उसके साथ दुष्कर्म करने वाला व्यक्ति वर्तमान अभियुक्त नहीं था तो उसने उक्त प्रार्थना पत्र दाखिल किया. हालांकि न्यायालय पीड़िता के अधिवक्ता की दलील से संतुष्ट नहीं हुई व अपने आदेश में कहा कि ढाई वर्ष बाद पीड़िता ने उक्त प्रार्थना पत्र दाखिल किया व ढाई वर्ष की देरी का कोई कारण भी स्पष्ट नहीं है. न्यायालय ने आगे कहा कि ऐसा नहीं लगता कि उक्त प्रार्थना पत्र पीड़िता ने सही इरादे से दाखिल किया है.

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