लखीमपुर खीरीःकहते है कि बाघ बचेंगे तभी जंगल बचेंगे, पर यूपी की तराई के बाघ जंगलों से निकलकर गन्ने के खेतों को अपना नया आशियाना बनाते जा रहे. जितने बाघ जंगल में हैं, कमोवेश उतने ही बाघ गन्ने के खेतों में अपना परिवार पाल रहे. पर सवाल ये है कि क्या बाघों को जंगल रास नहीं आ रहा या जंगलों में कोई डिस्टर्बेंस है, जिससे बाघ जंगलों को छोड़ गन्ने के खेतों को अपना आशियाना बना रहे. क्या जंगल में बाघों के लिए भोजन की कमी है. ऐसे कई सवाल शायद जो इस वक्त हमारे सामने है.
दुधवा के फील्ड डायरेक्टर रहे संजय कुमार पाठक कहते हैं, 'जंगलों के किनारे तक आदमी ने घुसपैठ कर ली, बाघ तो अपनी सरजमीं में ही रह रहे. उन्हें क्या पता गन्ना क्या और नरकुल और खागर क्या. बाघों को तो गन्ने के खेत भी जंगल ही नजर आते हैं. जंगलों में घुसपैठ और मानवीय दबाव तो है ही पर भोजन की कमी नहीं.' सीनियर आईएफएस और दुधवा टाइगर रिजर्व में फील्ड डायरेक्टर रह चुके रमेश पाण्डेय कहते हैं, 'बाघों को बचाने में तराई के किसानों का भी एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जंगलों के आसपास रह रहे किसान बाघों के असली संरक्षक हैं.'
बाघों का शिकारः यूपी की तराई की सरजमीं बाघों की पसंदीदा जगह रही है. आजादी के पहले से इस इलाके में बाघों का साम्राज्य रहा है. लेकिन राजे रजवाड़े के शौक और शिकारियों की नजर इन जंगलों पर लगी तो बाघों को बेतहाशा शिकार कर मारा गया. लखीमपुर खीरी जिले के पलिया इलाके में रहने वाले बुजुर्ग किसान बेनी सिंह बताते हैं, '4-4 बाघों को एक साथ मारा गया, उसके साथ फोटो खिंचवाई गईं. बाघों की खालें शील्ड के रूप में रजवाड़ो के ड्राइंग रूम की शोभा बनीं. पर जंगल किनारे जब से गन्ने की फसल होने लगी बाघों को एक सुरक्षित जगह मिल गई. हमारे खेतों में कई बार बाघिन ने शावकों को जन्म दिया. हम भी उन्हें परेशान नहीं करते.'
प्रोजेक्ट टाइगरःभारत में 1 अप्रैल 1973 को प्रोजेक्ट टाइगर लागू किया गया. उद्देश्य था बाघों का संरक्षण और संवर्धन. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने व्यक्तिगत रुचि लेकर बाघों के संरक्षण को देश के नौ टाइगर रिजर्व में प्रोजेक्ट टाइगर लागू किया. तब से बाघों के शिकार को लेकर नए नियम कानून बने. जंगलों को भी रिजर्व टाइगर के रूप में विकसित किया गया.
यूपी के दुधवा टाइगर रिजर्व को भी 1987 में टाइगर रिजर्व का दर्जा मिला. यहां बाघों की तादात तब तक काफी कम हो गई थी. पर जंगल में रह रही थारू जनजाति और आसपास के किसानों को भी बाघों को संरक्षित करने को प्रेरित किया गया. तराई के इस इलाके में जंगल किनारे गन्ने की खेती होने लगी, जो बाघों के लिए एक तरफ चुनौती थी तो दूसरी तरफ एक बेहतर पर्यावास उपलब्ध कराने वाली.
गन्ने के खेत सुरक्षित ठिकानाः दक्षिण खीरी वन प्रभाग के डीएफओ संजय बिस्वाल कहते हैं, 'ऐसा नहीं है कि सब के सब बाघ जंगल छोड़ गन्ने के खेतों में आ गए. इन बाघों को नहीं पता होता कि कौन गन्ने का खेत है और कौन फूस. उसे बस सुरक्षित ठिकाना चाहिए होता है. कभी-कभी ज्यादातर बरसात के दिनों में बाघ जंगल से सटे गन्ने के खेतों में आ जाते है. 4 से 5 महीनों तक गन्ने के खेतों में कोई डिस्टर्बेंस नहीं रहता. फिर बाघों को जंगली सुअर, नीलगाय जैसा बढ़िया शिकार भी मिल जाता. बाघ हो या कोई भी इंसान दाना पानी और सुरक्षित रहने का ठिकाना सबको अच्छा लगता.'
बढ़ता जा रहा बाघों और मनुष्य में द्वंद्वः18 जुलाई को 22 साल के रोहित की महेशपुर रेंज के उदयपुर गांव शव मिला. गन्ने के खेत में बाघ के हमले से उसकी मौत हो गई. वहीं, 27 जुलाई को पीलीभीत जिले के माडोटांडा के सेल्हा गांव में 10 साल की बच्ची को बाघ उठा ले गया. बाद में बच्ची का शव जंगल में मिला. जंगल किनारे तक फैल चुके गन्ने के खेतों में बाघों की संतति के फलने-फूलने के साथ ही मानव वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं भी बढ़ गई हैं. आए दिन बाघों के हमलों में मौतें हो रही हैं. इससे बाघों को लेकर दहशत भी बढ़ गई है. जानकारों का कहना है कि बाघ जंगल छोड़ इन दिनों गन्ने के खेतों को अपना आशियाना बनाए हुए हैं. ऐसे में जब किसान या लोग खेतों में चारा लेने या जानवर चराने जा रहे तो बाघ से उनका आमना सामना हो जा रहा. वो रिहायशी इलाकों में भी घुस जा रहे.