उत्तर प्रदेश

uttar pradesh

ETV Bharat / state

कबूतर की वजह से हो रही लंग्स फाइब्रोसिस की बीमारी, ये सावधानियां हैं जरूरी - टीबी और अस्थमा

लंग्स फाइब्रोसिस जैसी बीमारी के वाहक कबूतर और चिड़ियों की बीट हैं. एक शोध में पाया गया कि लंग्स फाइब्रोसिस के रोगियों के घरों में कबूतर अपना घोंसला बनाते थे और बीट्स करते थे. ईटीवी भारत ने इस महत्वपूर्ण स्रोत पर चेस्ट एवं टीवी रोग विभाग के विभागाध्यक्ष डॉक्टर अश्वनी मिश्रा से की खास बातचीत की.

etv bharat
कबूतर

By

Published : Jan 9, 2023, 1:51 PM IST

Updated : Jan 9, 2023, 2:25 PM IST

चेस्ट एवं टीवी रोग विभाग के विभागाध्यक्ष डॉक्टर अश्वनी मिश्रा

गोरखपुरः कोरोना की बीमारी ने लोगों के लंग्स पर काफी बुरा असर डाला है, जिसकी वजह से लोगों की मृत्यु भी हुई. वहीं, इस बीमारी ने लंग्स यानी कि फेफड़े को प्रभावित करने के अन्य कारणों पर भी चिकित्सकों को शोध करने के लिए प्रेरित किया. इसी प्रेरणा से बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के चेस्ट एवं टीबी विभाग से जुड़े हुए चिकित्सकों की टीम ने विभागाध्यक्ष डॉ अश्वनी मिश्रा के नेतृत्व में जब शोध की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया, तो यह पाया कि, लंग्स फाइब्रोसिस जैसी बीमारी के वाहक कबूतर और चिड़िया की बीट हैं. इसके साथ ही खेती-किसानी में काम करने वाले लोगों को यहां से निकलने वाली धूल और गंदगी भी लंग्स को प्रभावित कर रही है.

आप जानकर हैरान हो गये होंगे कि लंग्स फाइब्रोसिस की बीमारी कबूतर की वजह से हो रही है. इसमें भी उनके बीट्स की महत्वपूर्ण भूमिका है. इस शोध के लिए 40 से 60 वर्ष के रोगियों को शोध का आधार बनाया गया है और यह पाया गया है कि इनके घरों में कबूतर अपना घोंसला बनाते थे और बीट्स करते थे. इसकी वजह से इसका संक्रमण इन मरीजों तक पहुंचा. इसके आधार पर चिकित्सकों ने मरीजों का इलाज करना शुरू किया और उसमें उन्हें बेहतर सफलता नजर आई, लेकिन इसके बेहतर परिणाम तभी मरीजों को मिल पाएंगे या समाज उठा पाएगा, जब इस बीमारी के वाहक तत्वों से वो खुद की दूरी बना लें जिससे न सिर्फ मृत्यु दर में कमी आ सकती है, बल्कि बहुत थोड़े खर्च और कम समय में स्वस्थ होकर अपने घर भी लौट सकता है.

बीआरडी मेडिकल कॉलेज के चेस्ट एवं टीबी डिपार्टमेंट में प्रतिदिन ओपीडी में ढाई सौ से 300 मरीज आते हैं. लगातार मरीजों की संख्या को देखते हुए विभाग के एचओडी डॉ. अश्विनी मिश्र के नेतृत्व में टीम ने 10 मरीजों पर शोध शुरू किया, जिनकी उम्र 40 से 60 साल थी. इसमें पता चला कि लंग्स फाइब्रोसिस के दो मुख्य वजहें हैं. पहली वजह आईपीएफ (इडियोपैथिक पलमोनरी फाइब्रोसिस) और दूसरी वजह एचपी (हाइपरसेंसेटिव निमोनाइटिस) रही. शोध में आईपीएफ का कारण नहीं पता लगाया जा सका, लेकिन एचपी की वजह सामने आई. इसमें पता चला कि घर में भूसा रखने वाले और पिजन (कबूतर) के नजदीक रहने से लोगों में एचपी की बीमारी हो रही है.

डॉ अश्वनी मिश्रा ने ईटीवी भारत से बातचीत में बताया कि 'देश के दूसरे हिस्से से ज्यादा यूपी के पूर्वी हिस्से में एचपी के मरीज ज्यादा हैं. शुरुआती दिनों में मरीज को सांस फूलने की शिकायत होती है, लेकिन, कुछ ही दिनों में यह प्रॉब्लम इतनी बढ़ जाती है कि पेशेंट खुद को चलने फिरने में असमर्थ पाता है. इस बीमारी में पेशेंट के फेफड़े सिकुड़ जाते हैं. इससे ऑक्सीजन लेने की क्षमता कम हो जाती है. सीटी स्कैन के जरिए बीमारी के शुरुआती चरण में ही पहचान की जा सकती है, जिस पर इलाज प्रारंभ कर देने से मृत्यु दर में कमी और इलाज में, समय और धन की भी कमी आ जाती है. उन्होंने शोध में शामिल अपने सभी सहयोगी डॉक्टरो के प्रति भी आभार जताया, जिसकी वजह से ऐसे मरीजों को लाभ मिल सकेगा'.

उन्होंने कहा कि इस बीमारी के सिम्टम्स टीबी और दमा के लक्षण से काफी मिलते हैं. इसलिए सामान्य लोग इस बीमारी को टीबी, अस्थमा समझ लेते हैं, जबकि, सूखी खांसी आना, लगातार सांस फूलना, भूख कम लगना, शरीर का वजन कम हो जाना, इसके लक्षणों में शामिल है. डॉ अश्वनी मिश्रा ने बतााय कि पीएफटी (पलमोनरी फंक्शन टेस्ट) से दमा और लंग्स फाइब्रोसिस में अंतर किया जा सकता है. फेफड़े की फाइब्रोसिस में अंतर किया जा सकता है. फेफड़े की फाइब्रोसिस का सटीक पता लगाने के लिए सीटी स्कैन कराया जाता है. लंग्स फाइब्रोसिस की बीमारी के गंभीर होने पर फेफड़े मधुमक्खी के छत्ते की तरह होने लगते हैं. इस अवस्था में ऑक्सीजन देना ही आखिरी इलाज बचता है.

उन्होने बताया कि लंग फाइब्रोसिस के डिफरेंट टाइप्स है. इन्हें दो प्रमुख हिस्सों में बांटा गया है. पहला आईपीएफ (इडियोपेथिक पलमोनरी फाइब्रोसिस) जो लगभग 50% मरीज में पाया जाता है और दूसरा नान आईपीएफ जो कि अन्य 50% मरीजों में मिलता है. उन्होंने कहा कि घरों में घोसले बनाने वाले कबूतरों से लोगों को बचना चाहिए. दूसरे पक्षियां आते हैं और उड़ जाते हैं, लेकिन कबूतर अधिकांश घरों में ठिकाना बना लेते हैं जो लोगों के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं. खेतों में और भूसा के संपर्क में काम करने वाले लोगों से भी उन्होंने मास्क के साथ जरूरी उपाय को अपनाने की सलाह दी, जिससे इस बीमारी से बचा जा सके. उन्होंने कहा कि अभी भी प्रतिदिन महीने में 15 से 20 मरीज उन्हें ऐसे देखने को मिल रहे हैं, जिनका इलाज और सुझाव दोनों जारी है.

Last Updated : Jan 9, 2023, 2:25 PM IST

ABOUT THE AUTHOR

...view details