गोरखपुरःजिले के बैलों स्थित मदरसा मकतब में बकरीद के अवसर पर अकीदतमंदों ने नमाज अदा की. पूरी दुनिया में एक साथ मनाए जाने वाले इस त्यौहार को मुस्लिम समाज के लोग कुर्बानी के रूप में मनाते हैं. मुस्लिम समुदाय का तीन दिवसीय यह त्यौहार अरबी कैलेंडर के मुताबिक जिलहिज्जा के 10 तारीख से शुरू होता है.
कहां से शुरू हुई कुर्बानी की परंपरा
जनपद के बैलों स्थित मदरसा मकतब के मौलाना आस मोहम्मद ने बताया कि जाईज मवेशियों को अल्लाह के नाम पर किसी खाश अवसर पर कुर्बान करने का नाम कुर्बानी है. कुर्बानी हजरते इब्राहिम अलैहिस्सलाम की सुन्नत है. हजरते इब्राहिम के ख्वाब में अल्लाह का हुक्म हुआ कि आप अपने सबसे प्यारी चीज को अल्लाह की राह में कुर्बान करें. तब पहले हजरते इब्राहिम ने ऊंटों की कुर्बानी की. फिर पुनः दूसरे दिन भी वही ख्वाब देखा. तीसरे दिन उनकी नजर अपने बडे़ बेटे हजरते इस्माइल पर पड़ी तो देखा कि संसार में सबसे अजीज मेरे बेटे इस्माइल से बढ़कर कुछ भी नहीं हो सकता है.
बेटे की दी कुर्बानी
अपने रबताला की राजामंदी के लिए हजरते इब्राहिम ने अपने बेटे हजरत इस्माइल से अल्लाह के फरमान की सच्चाई बताई तो उनका बेटा भी हंसी-खुशी अपने रब पर जान न्यौछावर करने के लिए रजामंद हो गया. उसी दिन हजरते इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल को साथ लेकर एक पहाड़ के किनारे सुनसान जगह पर पहुंच गए. यहां उन्होंने बेटे की आंखों पर पट्टी बांध दी और गले पर चमचमाती तेजधारी चाकू चला दी. कुछ देर बाद उनके बगल में फरिस्तों के सरदार हजरते जिब्रिल खडे़ हो गए. उन्होंने जिब्रिल से पूछा ये क्या मामला है तो फरिस्तों के सरदार ने जवाब दिया कि अल्लाह आप का इम्तहान ले रहा था. इसलिए स्वर्ग से दुंम्बा भेजा और आपके बेटे को महफूज करने का हुक्म दिया. वास्तव में आप अल्लाह के नेक पैगम्बरों में से एक हैं. उसी दिन से बकरीद के त्यौहार पर कुर्बानी करने की परंपरा कायम हुई.