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सपा की सुस्ती और कांग्रेस का सोशल इंजीनियरिंग, कहीं बदल न दे यूपी का चुनावी समीकरण - Lakhimpur Kheri violence

यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (UP Assembly Election 2022) से पहले प्रियंका गांधी की सक्रियता से कहीं न कहीं समाजवादी पार्टी की सुस्ती पर भारी पड़ सकती है. आइए जानते हैं कि यूपी की राजनीति में कांग्रेस और सपा की अभी क्या भूमिका है?

यूपी का चुनावी समीकरण.
यूपी का चुनावी समीकरण.

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Published : Oct 12, 2021, 7:48 PM IST

वाराणसी:यूपीविधानसभा चुनाव 2022 (UP Assembly Election 2022) से पहले सियासी समीकरण साधने की तैयारी हर राजनीतिक दल ने शुरू कर दी है. सत्तारूढ बीजेपी या समाजवादी पार्टी कोई भी दल किसी तरह से पीछे नहीं रहना चाह रहा है. वहीं, लंबे वक्त से उत्तर प्रदेश की राजनीति में निष्क्रिय कांग्रेस में भी जोश आने लगा है. प्रियंका गांधी का अचानक से कड़े तेवर के साथ यूपी की राजनीति में सक्रिय होन से जहां बीजेपी की नींद उड़ी हुई है, वहीं, सपा भी टेंशन में है. इसकी बड़ी वजह यह है कि लखीमपुर खीरी हिंसा और इसके पहले सोनभद्र के उम्भा में हुए नरसंहार मामले में प्रियंका गांधी का आगे आकर कांग्रेस को नई संजीवनी देना. जबकि इन दोनों प्रकरणों में यूपी में दूसरे नंबर की पार्टी समाजवादी पार्टी कहीं न कहीं सुस्त नजर आई.

यूपी का चुनावी समीकरण.

बड़े मुद्दों पर लखनऊ से पहले दिल्ली एक्टिव
सपा लखीमपुर घटना को लेकर राजनीतिक माहौल बना पाती उसके पहले प्रियंका गांधी ने हाईजैक कर लिया. जिसके बाद अब सवाल यह उठ ने लगा है कि क्या यूपी की सक्रिय राजनीति में बीजेपी को कांग्रेस टक्कर देने जा रही है. क्योंकि दोनों प्रकरण में पिछड़ जाना और पंचायत चुनावों के दौरान धांधली के बाद भी अपने पार्टी के 11 जिला अध्यक्षों को बर्खास्त करके अखिलेश यादव का बैकफुट पर आना यह साबित कर रहा है कि कांग्रेस की यूपी में सियासी जमीन तैयार हो रही है. जबकि समाजवादी पार्टी अपनी मजबूत जमीन को बचा पाने में असफल होती दिख रही है.

कांग्रेस का सोशल इंजीनियरिंग प्लान लेकिन सपा?
बता दें कि यूपी की राजनीति में सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला भी बेहद महत्वपूर्ण तरीके से काम करता है. शायद यही वजह है कि यूपी की राजनीति में ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम वोट बैंक को सबसे मजबूत मानकर काम किया जाता है. भले ही यह तीनों जातियां एक दूसरे की विरोधी मानी जाती हो लेकिन सक्रिय राजनीति में इन जातियों का विशेष महत्व है. इसलिए इस बार ब्राम्हण, दलित और मुस्लिम गठजोड़ पर हर राजनीतिक दल अपने तरीके से काम कर रहे हैं. एक तरफ ओवैसी के मुस्लिम मतदाताओं को असमंजस में लाकर खड़ा कर दिया है. वहीं दलितों पर एकाधिकार जमाने वाली बहुजन समाज पार्टी ब्राह्मणों को साधने की कोशिश भी शुरू कर दी है. जबकि कांग्रेस ने तीनों जातियों को साथ लेकर समाजवादी पार्टी की टेंशन को बढ़ा दिया है. अखिलेश यादव अभी अपने पुश्तैनी यादव वोट बैंक के सहारे ही आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं. सपा के खानदानी वोट बैंक मुस्लिम समुदाय के बट जाने की वजह से दिक्कतें बढ़ सकती हैं. क्योंकि एक तरफ ओवैसी हैं तो दूसरी तरफ मजबूत हो रही कांग्रेस समाजवादी पार्टी की टेंशन को और बढ़ा रही है.

सर्व धर्म सद्भाव पर कांग्रेस की पैनी नजर
राजनीतिक जानकारों का भी कहना है यूपी में सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर ही काम करके कोई भी राजनीतिक दल आगे बढ़ सकता है. कांग्रेस जिस तरह से अचानक से सोशल इंजीनियरिंग समेत यूपी के बड़े मुद्दों को लेकर सक्रिय हुई है. वह अन्य दलों के लिए परेशानी बढ़ाने वाला साबित हो सकता है. 10 अक्टूबर को बनारस में हुई रैली में कांग्रेस ने अपनी ताकत दिखाने की पूरी कोशिश भी की है और प्रियंका ने एक तरफ जहां हिंदूवादी चेहरे को आगे रखकर ब्राह्मणों को साधने का प्रयास किया है. वहीं, मंच पर सर्व धर्म सद्भाव के लिए मौलाना और अन्य धर्माचार्यों की मौजूदगी ने कांग्रेस के सियासी कार्ड को मजबूती दे दी है.

एक के बाद एक गलती कर रही सपा
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से रिटायर्ड राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर सतीश राय का कहना है कि समाजवादी पार्टी मुद्दों को पकड़ने में कहीं न कहीं से ढिलाई दे रही है. अपने कंफर्ट जोन से अखिलेश यादव बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. जिसका खामियाजा उन्हें आने वाले चुनावों में भुगतना पड़ सकता है. सोशल मीडिया के बल पर अखिलेश यादव की राजनीति कितना आगे बढ़ेगी यह तो वह खुद जाने लेकिन अखिलेश की सुस्ती कांग्रेस को मजबूत करने का काम कर रही है. प्रियंका गांधी का यूपी में एक्टिव होना और पूर्वांचल की सक्रिय राजनीति में आगे बढ़कर वोटर्स के मन पर कांग्रेस की पुरानी छवि को सुधारने के काम में प्रियंका जिस तरह से जुटी हैं, वह 2022 के चुनावों में समाजवादी पार्टी को बड़ा नुकसान पहुंचा सकता है.

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प्रोफेसर सतीश राय का कहना है कि पिछले चुनावों में जिस तरह से अखिलेश यादव और कांग्रेस साथ में आकर चुनाव लड़े थे. अखिलेश से नाराज वोटर्स का खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ा था. वह इस बार के चुनावों में कांग्रेस सपा से दूर रहकर उन्हें नुकसान पहुंचाने की पूरी कोशिश करेगी. बीजेपी भी अभी तक किसी बड़े सियासी गठजोड़ के साथ आगे नहीं आई है. उनके साथ जो रीजनल दल हुआ करते थे वह भी दूर हो चुके हैं. प्रोफेसर राय का कहना है कि समाजवादी पार्टी एक के बाद एक गलतियां कर रहे हैं. पिछले 5 सालों में कई ऐसे बड़े मुद्दे हुए जिस पर सबसे मजबूत विपक्ष होने के नाते अखिलेश यादव को पूरी ताकत के साथ सरकार को घेरने की कोशिश करनी चाहिए थी, लेकिन वह इन मुद्दों से दूर क्यों रहें. यह गलतियां इन चुनावों में भारी पड़ सकती है.

फिर दिख रही 2007 से पहले की हालत
प्रोफेसर सतीश राय का कहना है कि 2007 से पहले जिस तरह से त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति हुआ करती थी, इस बार भी हालात कुछ ऐसे ही दिखाई दे रहे हैं. क्योंकि अब तक किसी बड़े सियासी गठजोड़ का सामने न आना और हर राजनीतिक दल का अपने बल पर चुनाव लड़ने की घोषणा इस ओर संकेत दे रहा है. उन्होंने कहा कि लंबे वक्त से जो कांग्रेस कहीं से भी एक्शन में नहीं थी, उसके एक्शन में आने का खामियाजा यूपी के दूसरे नंबर के सबसे बड़े राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी को निश्चित तौर पर उठाना पड़ सकता है. क्योंकि बीते चुनावों में समाजवादी पार्टी से ज्यादा बहुजन समाजवादी पार्टी का वोटिंग परसेंटेज सामने आया था. हालांकि उन्हें सीटें कम मिली थी लेकिन वोटिंग परसेंटेज के ज्यादा होने का खामियाजा इस बार भी समाजवादी पार्टी को भुगतना पड़ सकता है.

यदि कांग्रेस का वोटिंग परसेंटेज बढ़ता है और बसपा पहले से ही वोटिंग परसेंटेज के मामले में अच्छी रही है तो समाजवादी पार्टी को दोबारा नुकसान हो सकता है. ऊपर से इस बार सियासी दल जो छोटे-छोटे रीजनल पार्टियों के रूप में चुनाव लड़ने जा रहे हैं, वह भी समाजवादी पार्टी को नुकसान पहुंचा सकते हैं. इसके अलावा यूपी में हैदराबाद से ओवैसी की एंट्री भी समाजवादी पार्टी के पुश्तैनी मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी के लिए काफी है. यानी कुल मिलाकर इस बार कांग्रेस का एक्टिव होना और अब तक किसी बड़े सियासी गठजोड़ का सामने न आना हर राजनीतिक दल की चिंता बढ़ाने का काम करेगा, लेकिन सबसे बड़ा नुकसान सपा को हो सकता है.

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