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'कोटा कलम' के यहां नहीं कद्रदान, मिनिएचर आर्ट की विदेशों में भारी डिमांड

चटख रंग, तीखे नैन नक्श, बारीक काम, सफाई से गढ़ा गया हाथी कोटा कलम शैली की खास पहचान है. ऐसी मिनिएचर पेंटिंग जो दुनिया भर में फेमस है. लेकिन दुख की बात ये है कि जहां इसके प्रशंसकों की लम्बी फेहरिस्त होनी चाहिए वहां मुट्ठी भर लोग ही रह गए हैं (dying Miniature Painting). क्या है इस चित्रकारी का इतिहास और कैसे इसे बचाने की जुगत में लगे हैं ये मुट्ठी भर लोग! आइए जानते हैं.

dying Miniature Painting
यहां नहीं कद्रदान

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Published : Nov 25, 2022, 1:45 PM IST

कोटा. बूंदी से अलग होने के बाद कोटा शैली पेंटिंग की अपनी पहचान बनी. राजा महाराजाओं ने "कोटा कलम" मिनिएचर पेंटिंग को सहेजा और आगे भी बढ़ाया. Royal Patronage यानी शाही संरक्षण में खूब फली फूली ये कला और इसके कलाकार. विश्व भर में इसके प्रशंसकों की तादाद बढ़ती गई. ये शैली इन-डिमांड रही. लेकिन ये 500 साल पहले की बात थी. अब तो न वो लोग रहे, न वो प्रशंसक और न शाही संरक्षक. लिहाजा कोटा कलम की लोकप्रियता घटती गई (dying Miniature Painting). नतीजतन आज ये कला लुप्तप्राय स्थिति में पहुंच गई है. इसे बनाने वाले कलाकार भी गिने-चुने ही रह गए हैं.

कोटा कलम की शैली के एक पुराने कलाकार शेख मोहम्मद लुकमान हैं. उनकी पांच पीढ़ी इसी कार्य से जुड़ी थीं. लुकमान ने जो अपने बड़ों से सीखा है उसे आगे बढ़ा रहे हैं. उस धरोहर को बेमौत मारना नहीं चाहते. यही वजह है कि कुछ युवाओं का इस आर्ट फॉर्म से साक्षात्कार करा रहे हैं यानी उन्हें सीखा रहे हैं (Miniature Painting Kota Kalam). कोटा कलम के कलमकार लुकमान इस बेहतरीन कला को दम तोड़ता देख फिक्रमंद हैं. कहते हैं यहां के लोग समझ नहीं पा रहे जबकि विदेशों में इसकी काफी डिमांड है.

यहां नहीं कद्रदान

लुकमान कहते हैं अपनी शैली के प्रति लोगों को जागरूक करने की जरूरत है. खुद कोटा शैली की पेंटिंग का वर्तमान में अहमदाबाद और बनारस में काम कर रहे हैं. इसके पहले चंबा के लिए काम किया था. विदेशों में इस पेटिंग के बढ़ते क्रेज की ओर भी लुकमान ध्यान दिलाते हैं. बताते हैं- विदेशों में भी ज्यादातर मुरीद अमेरिका हॉलैंड से आते हैं. ये लोग साल में एक या दो बार आते हैं और पूरे साल की डिमांड देकर भी जाते हैं.

जर्मनी, यूएसए समेत यूरोप में 'हम'-राव माधो सिंह म्यूजियम के क्यूरेटर आशुतोष दाधीच पेंटिंग के फैन्स और इसकी लोकप्रियता को लेकर खास बात बताते हैं. कहते हैं- विश्व में कई ऐसे देश हैं जैसे- जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैंड और अनगिनत विश्व प्रसिद्ध म्यूजियम. वहां कोटा की कई पेंटिंग प्रदर्शित हैं. कोशिश है कि प्रदेश और देश के लोगों को पेंटिंग से रूबरू कराया जाए. प्रयासों को जमीन पर उतरते भी देखा जा सकता है. दिल्ली स्थित ललित कला अकादमी में प्रदर्शनी लगती है. हाल ही में कोटा कलम चित्रकारी की सात दिवसीय चित्र कला दीर्घा में प्रदर्शित की गई.

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दाधीच कहते हैं- कोशिश तो पूरी है लेकिन सच्चाई ये भी है कि इस चित्रकारी के आर्टिस्ट कम बच गए हैं. यह यथार्थ से जुड़ी हुई बात है. यह कला धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है, कलाकारों का इसके प्रति रुझान खत्म हो रहा है. इस कला को संजो के रखना और आगे बढ़ाना बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. हम चाहते हैं कि इसको उचित स्थान मिले. ट्रस्ट इसे पुर्नजीवित करने में जुटा है. यहां कलाकारों से भी कहना चाहूंगा कि वो यह न समझे कि, उन्हें कोई संभालने वाला नहीं है.

चटकीले रंगों व तीखे नाक नक्शों की है शैली-लुकमान बताते है कि उनके पिछली पीढ़ी इसी काम से जुड़ी थी और कोटा शैली कि कई पेंटिंग उनकी विदेशों में भी गई. कई पेंटिंग विश्व भर के म्यूजियम में लगी हुई है. साथ ही कहा कि कोटा शैली बूंदी से अलग है. समय के साथ ही इसमें परिवर्तन हुआ. कलर में बदलाव हुआ, अब चटकीले कलर लगाने लगे. इसमें मेवाड़ का इफेक्ट आ गया. सभी पेंटिंग में कद औरकाठी छोटी हो गई. पहनावे में बदलाव आ गया. आंखें बिल्कुल कमल की तरह से हो गई. नाक नक्श थोड़े तीखे हो गए और लंबाई थोड़ी कम हो गई. कलर में ज्यादातर नीला कलर उपयोग किया गया. ऐसा इसलिए भी क्योंकि हरे रंग में मेहनत ज्यादा लगती है. चटख रंगों से पेंटिंग सजीव हो जाती है.

हाथी बनाने में महारत-सभी शैलियों में हाथी अलग-अलग तरीके से बनाया जाता था. लेकिन कोटा कलम की एक खासियत थी. यहां के जैसा हाथी पूरे विश्व में नहीं बनता. इसीलिए पूरे विश्व में इसे मास्टर ऑफ एलीफेंट का खिताब मिला हुआ था. कोटा के आर्टिस्ट के जरिए बना हुआ हाथी बिल्कुल साफ और सुंदर होता था और उसका साइज भी बिल्कुल हाथी जैसा होता था. मोहम्मद लुकमान बताते हैं कि ऐसा हाथी मुगल काल में भी नहीं बना और किसी भी शैली में नहीं बन पाया था.

500 साल पुरानी है कोटा शैली-कोटा शैली करीब 500 साल पुरानी है. इसमें स्थानीय राजा व लोग किस तरह से रहते थे, क्या पहनावा व खानपान क्या था. किस तरह की उनकी जीवनशैली थी, वो क्या पहनते थे, कैसे जीवन बसर करते थे, उस समय की वास्तुकला कैसी थी- ऐसे अनगिनत दृश्य कूची के माध्यम से सजीव किए जाते थे. राजा महाराजाओं ने इस शैली को खूब बढ़ाया. राजे रजवाड़े गए तो कुछ सेठ लोगों ने प्रोत्साहन दिया. फिर सरकारों की तरफ देखा जाने लगा, लेकिन यहां से हाथ निराशा ही लगी. आज की बात करें तो आर्टिस्ट्स को ऐसा कुछ नहीं मिल रहा जिससे वो प्रोत्साहित हों. उपेक्षा का आभास कलाकार कर रहे हैं तभी रुझान कम हो गया है और आर्टिस्ट्स की संख्या गिरती जा रही है.

एक्सपोजर से डिमांड-कोटा के पूर्व महाराज और पूर्व सांसद इज्यराज सिंह का कहना है कि कोटा कलम मिनिएचर पेंटिंग स्टाइल को जीवित रखना जरूरी है. लोगों को इसके बारे में पता चलेगा तो वर्तमान पीढ़ी और आने वाले पीढ़ी की रुचि बढ़ेगी. इस आर्ट को लेकर दिलचस्पी से आगे की राह आसान होगी. सांसद मानते हैं कि एक्सपोजर से कला का इकबाल बुलंद होगा. कहते हैं- यह विश्व मशहूर शैली कोटा कलम है और दुनिया भर में इसकी पहचान है. लोग इसको पसंद करते हैं. यह जीवित रहे और लोग ज्यादा व खूबसूरत पेंटिंग बनाएं इसके लिए एक्सपोजर जरूरी है. अभी जो आर्टिस्ट करते हैं और जो लोग खरीदते हैं, उनको इसकी कद्र है. एक्स्पोजर के साथ ही मांग लगातार बढ़ेगी. ये सब एक सूत्र में बंधा हुआ है. जब ज्यादा बनेगी, तब इसके बारे में जानकारी बढ़ेगी और उसकी डिमांड बढ़ जाएगी.

स्कूलों में भी दी जाए ट्रेनिंग-शेख मोहम्मद लुकमान का मानना है कि नए बच्चों को इससे जोड़ना जरूरी है. सरकार थोड़ा प्रोत्साहन दे, इसकी क्लासेज चलाए और स्कूल में भी कोटा पेंटिंग का प्रशिक्षण दिया जाए तो भला हो. कहते हैं- ये बच्चे ही आने वाले समय में इस शैली को लोगों तक पहुंचाएंगे. विदेशी आदमी तो इसे समझ रहा है, लेकिन कोटा का व्यक्ति या लोकल आदमी नहीं समझ पा रहे. हम चाहते हैं कि लोकल आदमी भी इससे जुड़े, तभी इस शैली को बचाया जा सकेगा.

लुकमान अपने प्रयासों का भी जिक्र करते हैं. बताते हैं- मैंने इस संबंध में राज परिवार से चर्चा की थी. जिसके बाद ही कोटा के गढ़ पैलेस स्थित राव माधो सिंह म्यूजियम ट्रस्ट ने पहली बार कोटा कलम चित्रकारी कार्यशाला आयोजित की. यहां10 दिनों में करीब 55 प्रतिभागियों ने भाग लिया. सभी ने काफी इंटरेस्ट लिया और वो सीखना भी चाहते हैं.

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