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झालावाड़ में दीपोत्सव; यहां आज भी पुरानी परंपराएं कायम, गांवों में आज भी कुम्हार समाज को दीपों के बदले मिलता है अनाज

पूरा देश इस वक्त दीपावली को धूमधाम से मनाने की तैयारियों में लगा हुआ है. लेकिन दीपावली की तैयारियों के उत्साह के साथ-साथ कुछ ऐसी परंपराएं भी है, जो आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में निभाई जाती है. झालावाड़ जिले के कई ग्रामीण इलाकों में आज भी ये परंपरा है कि आमजन कुंभकारों को दीपों के बदले पैसे नहीं बल्कि अनाज देते है. कुम्हारों का कहना है बदलते परिवेश में मिट्टी के दीपों का स्थान इलेक्ट्रिक झालरों ने भले ही ले लिया हो, लेकिन इसके बावजूद मिट्टी के दीयों का अपना अलग ही महत्व है.

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Published : Oct 21, 2019, 12:25 PM IST

मनोहरथाना (झालावाड़). पूरा देश इस वक्त दीपावली की तैयारियों में जुटा हुआ है. बाजारों में कहीं रंग-बिरंगे और टिमटिमाते झालर तो कहीं एक से बढ़कर एक सजावटी सामान बिक रहे है. जो हर ग्राहक को अपनी ओर आर्कषित कर रहे हैं. ईटीवी भारत संवाददाता ने झालावाड़ के गांवों में ऐसे ही कुछ कुम्हार समाज के लोगों के घर जाकर देखा कि इस दीपावली उनकी क्या-क्या तैयारियां है. बिजली से चलने वाली चाक जिस पर कुम्हार मिट्टी को विभिन्न प्रकार का आकार देता है. वह बड़ी तेजी से गांव-गांव में फैल रहा है. बिजली चलित चाक की मदद से कुम्हार अब दिन में 1500 तक दीये बना लेते हैं.

दीपावली के लिए दीप बनाते कुम्हार समाज के लोग

ईटीवी भारत संवाददाता जिले के मांगीलाल प्रजापति और सुरेश प्रजापति के घर पहुंचे. जहां पर परंपरा के अनुसार मिट्टी के दीपक पुरानी आकृति के साथ बनाए जा रहे थे. कुंभकारों की ओर से बनाए जा रहे ये दीपक दीपावली पर कई घरों को रोशन करने के लिए अभी से ही शहर, गांव, ढाणी, के हर कोने में बिकने शुरू हो चुके हैं.

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बता दें कि दीपावली में तैयारियों के उत्साह के साथ-साथ कुछ ऐसी परंपराएं भी है जो आज भी ग्रामिण क्षेत्रों में निभाई जाती है. कई ग्रामीण इलाकों में आज भी ये परंपरा है कि लोग दीपों के बदले दीपक बनाने वालों को पैसे नहीं बल्कि अनाज देते हैं. कुंभकारों का कहना है बदलते परिवेश में मिट्टी के दीपों का स्थान इलेक्ट्रिक झालरों ने भले ही ले लिया हो. लेकिन, इसके बावजूद मिट्टी के दीये का अपना अलग ही महत्व है. चाइनीज इलेक्ट्रिक झालरों के बढ़ते दौर में भी त्यौहारों पर मिट्टी से बने दीपक और अन्य चीजों का क्रेज बना हुआ है. यह आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने कई वर्षों पहले हुआ करते थे. कुम्हार दीपावली के 4 हफ्तों पहले से ही दीये बनाने की तैयारियों में जुट जाते हैं.

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कुम्हारों का कहना है कि वे बड़ी मेहनत से चाक पर मिट्टी के दीये, बर्तन, मटका आदी चीजें बनाते है. लेकिन दीपावली पर लोग मिट्टी के दीए ना खरीदकर चाइनीज लाईटें खरीदते है. जिससे कुम्हारों को बड़ा नुकसान होता है. साथ ही उन्हें दुख भी होता है. कुम्हारों का कहना है कि उन्हें इस काम में अपने-अपने बच्चों को भी लगाना पड़ता है. बच्चों की उम्र अभी खेलने-कूदने की है. ऐसे में उनके उनके हाथों में चाक और मिट्टी को थमाना उनकी मजबूरी भी है. साथ ही बर्तनों पर होने वाली चित्रकारी भी उनके बच्चे भी करते है. ये छोटे-छोटे बच्चे बड़ी-बड़ी टोकरियों में मिट्टी के दीपक, गुल्लक, बर्तन आदि समान भरकर घरों में बेचने जाते है. जिसके बदले उन्हें अनाज दिया जाता है.

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