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SPECIAL: देशभर में मशहूर डूंगरपुर के बांस आर्ट पर ग्रहण, 120 से ज्यादा परिवारों पर रोजी-रोटी का संकट

घर की साज-सज्जा आपकी पसंद-नापसंद के बारे में ही नहीं, आपके रहन-सहन, सामाजिक स्तर और रुतबे का भी आईना होती है. अब लोग शाही अंदाज की सजावट के बजाय सहज और साधारण सुंदरता को प्राथमिकता देने लगे हैं. इसलिए राजस्थान में बनने वाले मुड्डे का प्रचलन तेजी से बढ़ा है. लेकिन घर की शोभा बढ़ाने वाले बांस के आर्ट केवल कारीगरों के घरों तक ही सीमित रह गए हैं, क्योंकि कोरोना की वजह से इन्हें खरीदने के लिए अब कोई ग्राहक नहीं बचा है. देखें यह रिपोर्ट...

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देशभर में मशहूर डूंगरपुर की बांस आर्ट पर ग्रहण

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Published : Jul 17, 2020, 9:23 PM IST

डूंगरपुर.घर की सजावट के लिए लोग तरह-तरह की चीजें आजमाते रहते हैं. खासकर बैठक की सजावट के लिए महंगी लकड़ी और बेंत से बनी वस्तुएं आमतौर पर इस्तेमाल होती थी, लेकिन बदलते समय के मुताबिक अब लोग घरों में महंगी सजावटी वस्तुओं के बजाय साधारण दिखने वाली वस्तुओं को सजावट और रोजमर्रा इस्तेमाल के लिए उपयोग करना पसंद करते हैं. इसलिए दफ्तरों और रेस्तरां के अलावा अब घरों में भी बांस के बने खूबसूरत सामानों का इस्तेमाल किया जाता है.

देशभर में मशहूर डूंगरपुर की बांस आर्ट पर ग्रहण

राजस्थान ना केवल अपने किलों और इमारतों के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां की शिल्पकारी और कलाकृतियां लोगों को हमेशा से ही आकर्षित करती रही है. यहां के कला के कद्रदान पूरी दुनिया में हैं. यहां बांस से बनाए सामानों की डिमांड देश-विदेश में होती है, जिसमें सूपा, टोकरियां, कुर्सियां और सजावट के अनेक सामान शामिल हैं. लेकिन कोरोना वायरस ने बांस से सामान तैयार करने वाले कारीगरों की जिंदगी उलट पुलट कर रख दिया है. बाजार बंद है जिसके कारण मेहनत से तैयार इन कारीगरों का सामान बिकना बंद हो गया है.

महिलाएं भी करती हैं बांस की कारीगरी का काम

डूंगरपुर शहर में नगर परिषद के ठीक पीछे एक पहाड़ी पर बांसवाड़ा कॉलोनी स्थित है. यहां बांसड समाज के करीब 120 परिवार रहते हैं. जो बांस की कारीगरी का काम करते है और इसी से इन परिवारों की आजीविका चलती है. पुरुष के साथ ही महिलाएं और बच्चें भी बांस से सामान तैयार करने का काम करते हैं. जिससे उनका परिवार चलता है, लेकिन लॉकडाउन के बाद से इन गरीब परिवारों पर भी रोजी रोटी का संकट मंडरा रहा है.

डूंगरपुर की बांसड समाज

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24 मार्च से देशभर में कोरोना महामारी के चलते लागू लॉकडाउन के कारण बांसड समाज के सैकड़ों परिवार बेरोजगार हो गए हैं. बांस से बनी हाथ की कारीगरी का अब कोई मोल नहीं रह गया है. बीते 3 महीनों में काम धंधा पूरी तरह से ठप हो गया है. अब जब अनलॉक के बाद बाजार खुल भी गए हैं तो भी खरीददार नहीं आ रहे हैं. कई परिवारों की हालत ऐसी है कि भूखों मरने की नौबन आ गई है.

कमाई तो दूर खाने-पीने के पैसे नहीं बचे

ईटीवी भारत की टीम ने बांसड समाज के लोगों से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि कमाई तो दूर खाने-पीने के पैसे नहीं बचे हैं. लॉकडाउन में उनकी इतनी हालत खराब हो गई है कि पहले जो सामग्री बेचकर दिन का गुजारा चलता था, वह भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि भले ही लॉक डाउन खुल गया है, लेकिन खरीदार कोई नहीं आ रहे हैं.

ग्रामीण बांस से तैयार करते हैं विभिन्न सामान

ग्रामीण बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान तो भामाशाह जो खाने के पैकेट दे जाते थे, उससे गुजारा कर लिया, लेकिन अब अनलॉक हो चुका है. ऐसे में कहीं से राशन मिलने की उम्मीद नहीं बची है. ग्रामीणों का कहना है कि उन्हें कोई सरकारी मदद भी नहीं मिल रही है. आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत कुछ फार्म जरूर भरवाएं गए हैं, लेकिन उसके लिए भी जमीन के कागजात मांगे जा रहे हैं.

बांसड समाज ही बनाता है दशहरे पर रावण परिवार के पुतले

डूंगरपुर के बांसड परिवार की कारीगरी देशभर में मशहूर है, इसलिए डूंगरपुर का बांसड समाज ही हर साल दशहरे के दिन रावण, मेघनाथ और कुंभकरण के पुतलों का निर्माण करता है. राजस्थान ही नहीं गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश राज्य में भी कई जगहों पर डूंगरपुर के बांसड समाज की ओर से तैयार किए गए पुतले ही जलाएं जाते हैं.

टोकरियां और सूपा बनाती महिलाएं

महिलाएं भी इस व्यवसाय में शामिल

बांस की कारीगरी का काम जितना पुरुष करते हैं, उससे ज्यादा महिलाएं इस काम को कर रही है. खास बात यह है कि जब ईटीवी भारत की टीम मोहल्ले में पहुंची तो घरों के बाहर ही बरामदे या किसी चबूतरे पर बैठकर महिलाएं बांस की कारीगरी करती नजर आईं. इसमें खासकर बुजुर्ग महिलाएं भी शामिल थीं. जिनकी उम्र 60 साल के पार हो चुकी है.

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इन बुजुर्ग महिलाओं के हाथ बारीकी से बांस की कारीगरी कर रहे थे. ईटीवी भारत की टीम ने 65 साल की बुजुर्ग लाली से बात की तो उन्होंने बताया 'परिवार में बेटे हैं, लेकिन वे अलग रहते है और वह भी अकेली अलग रहती हैं. ऐसे में उन्हें सरकार से 500 रुपये की पेंशन मिलती है, लेकिन इससे खर्चा चलाना मुश्किल है. इसलिए वह खुद भी बांस से कई प्रकार के सामान बनाने का काम करती हैं. जिसे बेचकर वे अपने घर का खर्च चलाती हैं.

करीब 120 परिवारों के रोजगार का साधन है बांस

सरकार से मदद की उम्मीद

बांसड समाज के यह परिवार आर्थिक और सामाजिक रूप से काफी पिछड़े हुए हैं. जबकि कोरोना काल में उनकी हालत खस्ता हो चुकी है, लेकिन यह परिवार इतने आत्मनिर्भर है कि बांस की कारीगरी से अपना गुजारा चला रहे है. लेकिन अब खरीदार नहीं मिलने से आर्थिक संकट झेल रहे हैं. अब यह परिवार सरकार से मदद की उम्मीद लगा रहे हैं. अब देखना होगा कि सरकार से उन्हें कितनी मदद मिलती है.

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