डूंगरपुर.घर की सजावट के लिए लोग तरह-तरह की चीजें आजमाते रहते हैं. खासकर बैठक की सजावट के लिए महंगी लकड़ी और बेंत से बनी वस्तुएं आमतौर पर इस्तेमाल होती थी, लेकिन बदलते समय के मुताबिक अब लोग घरों में महंगी सजावटी वस्तुओं के बजाय साधारण दिखने वाली वस्तुओं को सजावट और रोजमर्रा इस्तेमाल के लिए उपयोग करना पसंद करते हैं. इसलिए दफ्तरों और रेस्तरां के अलावा अब घरों में भी बांस के बने खूबसूरत सामानों का इस्तेमाल किया जाता है.
राजस्थान ना केवल अपने किलों और इमारतों के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां की शिल्पकारी और कलाकृतियां लोगों को हमेशा से ही आकर्षित करती रही है. यहां के कला के कद्रदान पूरी दुनिया में हैं. यहां बांस से बनाए सामानों की डिमांड देश-विदेश में होती है, जिसमें सूपा, टोकरियां, कुर्सियां और सजावट के अनेक सामान शामिल हैं. लेकिन कोरोना वायरस ने बांस से सामान तैयार करने वाले कारीगरों की जिंदगी उलट पुलट कर रख दिया है. बाजार बंद है जिसके कारण मेहनत से तैयार इन कारीगरों का सामान बिकना बंद हो गया है.
डूंगरपुर शहर में नगर परिषद के ठीक पीछे एक पहाड़ी पर बांसवाड़ा कॉलोनी स्थित है. यहां बांसड समाज के करीब 120 परिवार रहते हैं. जो बांस की कारीगरी का काम करते है और इसी से इन परिवारों की आजीविका चलती है. पुरुष के साथ ही महिलाएं और बच्चें भी बांस से सामान तैयार करने का काम करते हैं. जिससे उनका परिवार चलता है, लेकिन लॉकडाउन के बाद से इन गरीब परिवारों पर भी रोजी रोटी का संकट मंडरा रहा है.
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24 मार्च से देशभर में कोरोना महामारी के चलते लागू लॉकडाउन के कारण बांसड समाज के सैकड़ों परिवार बेरोजगार हो गए हैं. बांस से बनी हाथ की कारीगरी का अब कोई मोल नहीं रह गया है. बीते 3 महीनों में काम धंधा पूरी तरह से ठप हो गया है. अब जब अनलॉक के बाद बाजार खुल भी गए हैं तो भी खरीददार नहीं आ रहे हैं. कई परिवारों की हालत ऐसी है कि भूखों मरने की नौबन आ गई है.
कमाई तो दूर खाने-पीने के पैसे नहीं बचे
ईटीवी भारत की टीम ने बांसड समाज के लोगों से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि कमाई तो दूर खाने-पीने के पैसे नहीं बचे हैं. लॉकडाउन में उनकी इतनी हालत खराब हो गई है कि पहले जो सामग्री बेचकर दिन का गुजारा चलता था, वह भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि भले ही लॉक डाउन खुल गया है, लेकिन खरीदार कोई नहीं आ रहे हैं.
ग्रामीण बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान तो भामाशाह जो खाने के पैकेट दे जाते थे, उससे गुजारा कर लिया, लेकिन अब अनलॉक हो चुका है. ऐसे में कहीं से राशन मिलने की उम्मीद नहीं बची है. ग्रामीणों का कहना है कि उन्हें कोई सरकारी मदद भी नहीं मिल रही है. आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत कुछ फार्म जरूर भरवाएं गए हैं, लेकिन उसके लिए भी जमीन के कागजात मांगे जा रहे हैं.