बीकानेर.भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप का वध करने के लिए नृसिंह अवतार लिया था और उस दिन से नृसिंह भगवान के अवतरण दिवस को नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है. बीकानेर में भी भगवान नृसिंह के पांच-छह मंदिर हैं. लेकिन इनमें सबसे प्राचीन डागा चौक और लखोटिया चौक स्थित मंदिर है. बीकानेर शहर के भीतरी क्षेत्र में करीब 450 500 साल पुराने डागा चौक स्थित नृसिंह मंदिर के स्थापना और इतिहास से जुड़ी कई रोचक कहानियां हैं. मंदिर के पुजारी मनोज पांडिया बताते हैं कि उनका परिवार पीढ़ियों से इस मंदिर में भगवान नृसिंह की पूजा कर रहा है. वे खुद भी पिछले पंद्रह सालों से पुजारी हैं.
उन्होंने बताया कि माहेश्वरी वैश्य समाज में डागा जाति के आराध्य देव के रूप में भगवान नृसिंह को पूजा (lord Narsingh worshipped on Narsingh chaturdashi) जाता है. ये मंदिर भी डागा समाज के लोगों ने ही बनवाया है और आज भी इसका संचालन डागा समाज ही करता आ रहा है. अपने पूर्वजों से मिली जानकारी को साझा करते हुए पुजारी मनोज पांडिया कहते हैं कि करीब 500 साल पहले ये देवी मंदिर हुआ करता था. लेकिन एक घटनाक्रम के बाद यहां से देवी प्रतिमाओं को यहीं से कुछ दूरी पर स्थित मूंधड़ा चौक में नया मंदिर बनाकर स्थापित कर दिया गया और भगवान नृसिंह के विग्रह को यहां स्थापित कर उनकी पूजा की जाने लगी.
भगवान नृसिंह के दोनों रूप का एकमात्र मंदिर:भगवान नृसिंह खंभा फाड़कर प्रकट हुए थे और हिरण्यकश्यप के वध के दौरान उनका रौद्र रूप देखने को मिला था. इसके बाद भक्त प्रहलाद को दुलारते हुए उनका क्रोध शांत हुआ और वे श्याम रूप में नजर आए. पुजारी मनोज पांडिया (Bikaner Narsingh temple) कहते हैं कि भगवान नृसिंह के रौद्र रूप यानी कि भूरे नृसिंह और श्याम रूप नृसिंह के दोनों विग्रह का ये संभवत देश-प्रदेश में एकमात्र मंदिर है.
समतुल्य सोना देख कर लिए थे दोनों विग्रह:मंदिर के इतिहास से जुड़ी जानकारी बताते हुए पुजारी मनोज पांडिया कहते हैं कि पूर्व में जब यहां देवी मंदिर हुआ करता था तब मंदिर में एक धूणा हुआ करता था जहां दूर दराज से साधु-महात्मा आया करते थे. डागा जाति के लोगों ने भगवान नृसिंह के दोनों विग्रह मंदिर में स्थापित करने के लिए भेंट स्वरूप दोनों विग्रह के समतुल्य सोना महात्माओं को भेंट किया था.
सोने का आसन, अष्टधातु का मुख:मंदिर में स्थापित विग्रह के आसन और सिंहासन पूरी तरह से सोने का बना हुआ है जो इस मंदिर के प्रति डागा समाज के श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है. मंदिर में भगवान नृसिंह का एक अष्ट धातु का मुख भी है. आज से करीब 96 साल पहले इसे मंदिर में स्थापित किया गया था. इससे पहले मुल्तानी मिट्टी से बने अलग-अलग पात्रों के मुख हुआ करते थे, हालांकि वो आज भी मंदिर में हैं और उनकी भी पूजा होती है.
अष्ट धातु के मुख का निर्माण करने में 6 महीने लगे. हर साल नृसिंह जयंती के मौके पर होने वाले मेले में अवतार लीला में भगवान नृसिंह के अवतार का पात्र निभाने वाला व्यक्ति इसको पहनता है. अष्ट धातु से बना ये मुख करीब 10 किलो का है. मेले के दिन जब पात्र इसे पहनता है और तब धीरे-धीरे इसका वजन बढ़ जाता है और करीब यह 20 किलो हो जाता है.