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बुंदेलखंड में द्वापर युग की परंपरा

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बुंदेलखंड में द्वापर युग की परंपरा! सजधज कर अपनी गायों को ढूंढने निकले ग्वाल, दीवाली पर बरेदी नृत्य की धूम

By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Nov 13, 2023, 3:53 PM IST

दमोह। बुंदेलखंड में लोक कला की जड़ें बहुत गहरी हैं. सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परंपराएं आज भी पूरी शिद्दत के साथ निभाई जा रही हैं. जी हां हम बात कर रहे हैं बुंदेलखंड के प्रसिद्ध लोक नृत्य दिवारी की. दीपावली के दूसरे दिन शुक्ल पक्ष की प्रथमा को जिले भर में बरेदी (ग्वाल) अपनी वेशभूषा में तैयार होकर नगड़िया और ढोल की थाप पर नाचते गाते हुए गली-गली में घूमते हैं. दमोह जिले के बटियागढ़, जबेरा, हटा, तेंदूखेड़ा, पथरिया सहित सभी ग्रामीण अंचलों तथा शहर में भी इसकी धूम देखी जा रही है. ऐसी मान्यता है कि यह नृत्य करीब 5000 साल पुराना है. किंवदंती के अनुसार जब भगवान श्री कृष्णा ग्वाल के रूप में वृंदावन में रहा करते थे तब उनकी गायों को इंद्र चुरा कर ले गए. अपनी गायों को खोजने के लिए भगवान कृष्ण ने अपने सखा ग्वाल साथियों के साथ ऊनी वस्त्रों का मनमोहक श्रृंगार किया, ढोल नगड़िया और बांसुरी बजाते हुए जंगल-जंगल में गायों को ढूंढने लगे. जब गायें भगवान कृष्ण की बंसी की आवाज सुनती तो वह दौड़कर उनके पास आ जाती. अभी भी लोग परंपरा का निर्वाह करने के लिए लाल, हरे, चमकीली झालर वाले ऊनी कपड़े पहनते हैं. पैरों में घुंघरू बांधकर नाचते हुए ढोल और नगड़िया बजाकर बजाकर अपनी गायों को ढूंढने का प्रयत्न करते हैं. श्याम लाल यादव कहते हैं कि भगवान श्री कृष्णा के लिए यह नृत्य किया जाता है. गांव-गांव में हम लोग घूमते हैं। करीब 15 दिन तक यह चलता है.

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