सागर। 1980 के दशक में सागर जिले में करीब चार लाख बीड़ी मजदूर बीड़ी बनाकर अपना जीवन यापन करते थे, लेकिन सरकार की बदलती नीतियों और बीड़ी उद्योगपतियों की शोषणकारी नीतियों के चलते बीड़ी उद्योग की पूरी तरह से कमर टूट गई है. आज सागर ही नहीं, बल्कि पूरे मध्यप्रदेश में बीड़ी उद्योग एक चौथाई रह गया है, आंकड़े से साफ है कि तीन चौथाई मजदूरी खत्म हो गई है. आज बीड़ी उद्योग की दुर्दशा से जहां मध्यप्रदेश के 14 लाख बीड़ी मजदूर संकट में है, तो पूरे देश में करीब 10 करोड़ बीड़ी मजदूरों के रोजगार छिनने के आसार नजर आ रहे हैं. इसके साथ 80 लाख तंबाकू उत्पादक किसान भी बीड़ी उद्योग की कमर टूटने से बेरोजगारी की कगार पर हैं, बीड़ी उद्योग की दुर्दशा के लिए उद्योगपतियों की सामंती सोच और सरकार की आंख बंद करने की नीति को जिम्मेदार मानते हैं.
सरकार की नीति ने तोड़ी बीड़ी उद्योग की कमर तेंदूपत्ता के सहकारीकरण ने निकाला बीड़ी उद्योग का दम:तेंदूपत्ता के संग्रहण और विपणन का सहकारीकरण 1989 में पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अर्जुन सिंह ने किया था, उसके कारण बीड़ी उद्योगपति जो जंगल में जाकर तेंदूपत्ता लाते थे, उनका एकाधिकार खत्म हो गया. 1989 तक सागर जिले में बीड़ी उद्योग चरम विकास की अवस्था में था, लोगों को उस वक्त भरपूर काम मिलता था. सागर जिले में बीड़ी मजदूर बीड़ी उद्योग पर पूरी तरह से आश्रित थे, तेंदूपत्ता के दाम बढ़ जाने के बाद उद्योगपतियों ने तेंदूपत्ता देना कम किया. धागा, जर्दा का पैसा काटना शुरू किया, जबकि कानूनन कच्चे माल की उपलब्धता नियोजक को करानी थी. तरह-तरह से उन्होंने मजदूरी और मजदूरों पर हमले किए, बीड़ी गिन कर ली जाती है, लेकिन सिस्टम ऐसा बना दिया कि बीड़ी मजदूर 1200 बीड़ी लेकर आएगा. तब उसकी बीड़ी 1000 मानी जाएगी। 200 बीड़ी कटी और छंटनी के नाम पर काट ली जाएगी। इस तरह हर दिन मजदूर की 200 बीड़ी बेगार के रूप में काट दी जाएगी। इसका असर मजदूरों को जीविका पर पड़ा.
रही सही कसर कोटपा कानून ने की पूरी:सागर जिला बीड़ी मजदूर यूनियन के नेता अजीत जैन बताते हैं कि 1989 के बाद विशेषकर 2004 में जब अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री थे। तब पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनेस्को, जो बहुराष्ट्रीय पूंजीपतियों के द्वारा नियंत्रित होती है, उस के दबाव में बीड़ी उद्योग के खिलाफ कानून बनाया, जो कोटपा एक्ट के नाम से जाना जाता है. इसके जरिए बीड़ी उद्योग पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए गए, 2006 में इसके खिलाफ कानूनी और जमीनी लड़ाई लड़ी गई. सरकार कहती है कि ये कानून सारी दुनिया के लिए हैं और चीन जैसे देश ने भी दस्तखत किए हैं, लेकिन चीन की सरकार ने कहा है कि पहले हम वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करेंगे और जन जागरूकता फैलाएंगे, उसके बाद एक्ट को लागू करेंगे. लेकिन भारत सरकार का इन दोनों चीजों से कोई मतलब नहीं है, यह कानून लागू करने से मध्यप्रदेश में 14 लाख और पूरे देश में 10 करोड़ बीड़ी मजदूर के वैकल्पिक रोजगार का आज तक कोई इंतजाम ना तो सरकार के एजेंडे में है और ना ही कोई प्रयास किए जा रहे हैं. इसके साथ 80 लाख तंबाकू उत्पादक किसानों का भी कोई वैकल्पिक इंतजाम नहीं किया जा रहा है, इनका कहना है कि हम नशे के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. अजीत जैन कहते हैं कि मेरा मानना है कि नशा एक सामाजिक बुराई है, तो क्या सिर्फ बीड़ी पीना ही नशा है. शराब, गांजा, चरस जैसे नशे को कोटपा एक्ट में शामिल नहीं किया गया है, केवल बीड़ी और सिगरेट को कोटपा एक्ट में शामिल किया गया है. इससे लगता है कि सरकार की मंशा कुछ और है, बीड़ी के बारे में कहा जाता है कि इससे टीबी और कैंसर होता है, लेकिन आज तक भारत सरकार ने विशेषज्ञ डॉक्टरों और वैज्ञानिकों के साथ एक भी रिसर्च नहीं की, वो एनजीओ जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्देशित होकर उनके एजेंडे पर काम करते हैं. उनके द्वारा प्रचारित किया जा रहा है और वातावरण बनाया जा रहा है कि बीड़ी मानव जीवन के लिए नुकसानदायक है, यह उन लोगों का एजेंडा है, जो देश के राजस्व और रोजगार पर हमला कर रहे हैं.
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बीड़ी उद्योगपतियों का कुप्रबंधन जिम्मेदार:आज की तारीख में सरकार की मंशा के कारण बीड़ी उद्योग खतरे में हैं, 1989 की तुलना में बीड़ी उत्पादन एक चौथाई रह गया है. इसका मतलब श्रमिकों का रोजगार तीन चौथाई तक कम हो गया है. सागर में बनने वाली बीड़ी के साथ विडंबना है कि सागर में जो बीड़ी बनती है, उसका मार्केट सागर या सागर संभाग में ही नहीं बल्कि 50 सालों से राष्ट्रीय स्तर पर है, दिल्ली से लेकर असम जैसे राज्यों में यहां से बीड़ी जाती है. इनकी प्रतिस्पर्धा में जो नए बीड़ी उद्योगपति केरल, बंगाल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में निकल कर आए हैं, उनके आधुनिक प्रबंधन के सामने सागर या मध्य प्रदेश के बीड़ी उद्योगपतियों का सामंती प्रबंधन टिक नहीं पा रहा है. उनका बाजार विकास कर रहा है और सागर और मध्यप्रदेश का बाजार सिकुड़ रहा है, सागर की बीड़ी की गुणवत्ता को लेकर कहा जाता है कि यहां की गुणवत्ता मजदूरों के कारण गिर रही है. स्वभाविक है कि जो निर्माण प्रक्रिया में लगा होगा, वही जिम्मेदार माना जाएगा, लेकिन कुप्रबंधन भी इसके लिए जिम्मेदार है.
बीड़ी मजदूरों को मिले पे स्लिप:मप्र सरकार ने बीड़ी मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन अधि. बनाया। लेकिन मजदूर का न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करने की गारंटी की सरकार नहीं देती है. बीड़ी की न्यूनतम मजदूरी 1000 बीड़ी पर 100 रुपए है, लेकिन सागर में तेंदूपत्ता के साथ 60 और 70 रुपए मजदूरी दी जा रही है. हर मजदूर के हक की डकैती हो रही है, ये सबको मालूम है, लेकिन सरकार की कोई इच्छा शक्ति मजदूरी दिलाने में नजर नहीं आती है. अजीत जैन कहते है कि हमारी सरकार से छोटी सी मांग है कि पेमेंट एंड वेजेस एक्ट में प्रावधान है कि बीड़ी मजदूरों को पे स्लिप दी जाए, जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि मालिक कौन और मजदूर कौन है. मास्टर और सर्वेंट रिलेशन सामने आने से श्रम कानून का प्रवर्तन संभव हो सकेगा.
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श्रम कानून लागू करने में सरकारें लापरवाह:बीड़ी मजदूरों के हित में मप्र और केंद्र सरकार ने जो कानून बनाए हैं, उनमें महिला मजदूर के लिए मातृत्व अधिनियम, ईपीएफ, न्यूनतम वेतन और बोनस अधिनियम जैसे कानून लागू किए गए हैं. इन कानूनों से बचने के लिए मप्र और सागर का बीड़ी उद्योगपति मजदूरों को मजदूर नहीं मानता है, जब मजदूरों को उचित मजदूरी नहीं मिलेगी और कानूनों का फायदा नहीं मिलेगा, तो गुणवत्ता के प्रति वफादार क्यों होंगे. यहां बीड़ी रोल करने की बजाय पत्ता रोल कर ऊपर से जर्दा डाल दिया जाता है, जिससे क्वालिटी गिर रही है. जबकि अन्य प्रदेशों में तेंदूपत्ता में पत्ती रोल की जाती है, क्योंकि वहां के मजदूरों को कानूनी सुरक्षा है, लेकिन यहां के मजदूरों को कानूनी सुरक्षा नहीं होने का कारण मजदूरों का शोषण हो रहा है, जिसका जिम्मेदार बीड़ी नियोजक की सामंती सोच और सरकार की आंख बंद करने की नीति है. इस दोहरे शोषण का शिकार मप्र का बीड़ी उद्योग और बीड़ी मजदूर है, विडंबना है कि कोटपा जैसे कानून जो रोजगार छीनते हैं, उद्योग और रोजी-रोटी पर खतरा पैदा करते हैं. उनका सख्ती से अमल और मॉनिटरिंग का सिस्टम केंद्र और राज्य सरकार ने बनाया, लेकिन श्रम कानून जो मजदूरों को सुरक्षा प्रदान करते हैं, उनकी मानिटरिंग का कोई सिस्टम सरकारों ने नहीं बनाया. सागर और मप्र का बीड़ी उद्योग सरकार की जनविरोधी नीतियां और बीड़ी को केवल राजस्व का जरिया बनाना है.
क्या कहते हैं बीड़ी मजदूर: पंतनगर इलाके में रहने वाले दामोदर प्रजापति की उम्र 70 साल हो चुकी है। दामोदर प्रजापति बताते हैं कि 18 साल की उम्र से बीड़ी मजदूरी का काम कर रहे हैं लेकिन अब बीड़ी बनाने मैं वह बात नहीं रह गई।पहले बीड़ी बनाने से जो कमाई होती थी,उससे हमारे घर के आसानी से चल जाते थे। लेकिन आज मैं 70 साल की उम्र में महीने भर में सिर्फ 1800 रुपए कमा पा रहा हूं। दामोदर प्रजापति कहते हैं कि तेंदूपत्ता नीति और बीड़ी के शौकीन कम होने के कारण अब बीड़ी के धंधे में वह बात नहीं रह गई है.