नीमच। देश में लोग प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रकार की लोक संस्कृति एवं तीज त्योहारों को मानते आ रहे हैं. तीज त्योहारों पर मेहंदी, रंगोली, महावर, मांडने आदि बनाए जाते हैं. ऐसी ही एक लोक संस्कृति थी ‘संझा.’ जिसे जिले में आज से 10 वर्ष पूर्व बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था. भाद्रपद माह के शुक्ल पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या तक चलने वाले पंद्रह दिवसीय श्राद्ध पक्ष मे कुंआरी कन्याओं द्वारा मनाया जाने वाला मालवा का प्रमुख लोक पर्व ‘संझा’ अब धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर है.
'संझा' अब लुप्त होने के कगार पर ‘संझा’ पर्व का महत्व
कहा जाता है कि कुंवारी कन्याएं अच्छे पति की कामना के लिये संझा पर्व मनाती थी. अब यह पर्व मध्यप्रदेश के मालवा, निमाड़, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र आदि क्षेत्रो में कुंवारी कन्याओं के द्वारा बड़े उत्साह और उमंग के साथ यह लोकपर्व मनाया जाता रहा है.
श्राद्ध पक्ष के पहले ही दिन से सोलह दिन तक मनाया जाने वाले संझा लोकपर्व के अवसर पर कन्याओं की आस्था, विश्वास और आकांक्षाए दीवारों पर बनाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के माण्डनो, भित्ति चित्रों, लोक चित्रकारी के माध्यम से आदिशक्ति के विभिन्न स्वरूपों माता पार्वती, गोरा, दुर्गा आदि की पूजा अराधना के जानी पहचानी जाती थी.
गांवों में प्रतिदिन शाम होते ही मोहल्ले में कन्याएं अपने घरों की दीवारों पर लाल, पीली मिट्टी से लीप कर गाय, भैंस का ताजा गोबर ढूंढ कर प्रतिदिन संझा की विभिन्न प्रकार की सुंदर आकृतियां बनाकर उसे कनैर, गुलाब, चांदनी, चंपा, चमैली, मोगरा आदि के फूलों से सजाती थी और संझा गीत गाती थी.
साथ ही समूह में एक-दूसरे के घर-घर जाकर संझा की आरती कर प्रतिदिन अलग अलग तरह का प्रसाद बांटती थी. कुछ इस तरह के गीत गुनगुनाती थी ‘संझा तू थारे घर जा, कि थारी बई मारेगा, कि कुटेगा कि डेरी में डचोकेगा' और भी कई गीतों से अराधना की जाती थी.
पन्द्रह दिन तक मनाया जाता था ‘संझा’ पर्व
पन्द्रह दिन तक दीवारों पर बालिकाओं द्वारा घर के बाहर दीवार लिपकर, गोबर से प्रतिदिन विभिन्न भित्ति चित्र, कोट- कंगूरे, पालकी, पलना, सीढ़ी, चांद-सूरज, फूल- पत्ते, घोड़ा-बारात, गणपति और भी न जाने कितने तरह के चित्र रोज बनाए जाते थे.
आखिरी दिन गोबर के बने विभिन्न भित्ति चित्रों को चमकीले, रंगीन कागजों से आकर्षक रूप से सजाया जाता था. सभी बालिकाओं में आपस में अपनी संझा को सुंदर और आकर्षक बनाने की होड़ लगी रहती थी. आखिर में संझा को अमावस्या के अगले दिन पूजा-अर्चना कर नदी में विसर्जित किया जाता था.