दमोह। प्रायः विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी बुंदेलखंड की प्रसिद्ध शेर नृत्य लोक कला (lion dance folk art) अब पुनर्जीवित हो रही है. इसे जीवित कर रहे लोगों को इस बात का मलाल है कि सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही है.
फिर जीवित हो रही है शेर नृत्य लोक कला
तकनीक के इस युग में टेलीविजन, मोबाइल तथा इंटरनेट आने के बाद से प्रायः विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी बुंदेलखंड की प्रसिद्ध शेर नृत्य लोक कला अब एक बार फिर धीरे-धीरे पुनर्जीवित हो रही है. 90 के दशक के बाद पूरी एक पीढ़ी जवान हो गई, लेकिन उसे इस बात की खबर ही नहीं कि बुंदेलखंड (Bundelkhand dance) की गौरवशाली सांस्कृतिक लोक कला का डंका कभी मध्य भारत में बजा करता था. अब एक बार फिर इस कला को जीवित करने के लिए लोग आगे आ रहे हैं. हालांकि इसका एक पक्ष यह भी है कि दिन भर शहर की सड़कों पर घूम कर नृत्य करने वाले इन युवाओं को पारितोषिक के नाम पर मात्र 5-10 रुपए ही मिलते हैं. कभी उन्हें वह सम्मान और पारितोषिक नहीं मिला जिसके वह वास्तविक हकदार हैं.
कभी बुंदेलखंड से महाराष्ट्र तक था प्रसिद्ध
वैसे तो नवरात्रि पर्व पूरे देश में उत्साह और श्रद्धा पूर्वक मनाया जाता है, लेकिन बुंदेलखंड में इस पर्व को लेकर अपनी अलग ही मान्यताएं हैं. यहां धर्म के प्रति लोगों की आस्था और विश्वास काफी गहरा है. इसी आस्था और विश्वास के कारण करीब दो शताब्दी से भी पहले शेर नृत्य का चलन शुरू हुआ था, जो अभी तक चला आ रहा है. टेलीविजन युग आने के बाद जैसे-जैसे मनोरंजन के साधन बढ़ते गए, शेर नृत्य भी विलुप्त होने लगा. आजादी के दरमियान यह नृत्य इतना अधिक प्रचलित था कि बुंदेलखंड से मालवा होते हुए यह महाराष्ट्र के कोल्हापुर और अमरावती में भी खासा लोकप्रिय हो गया.
रंग चढ़ने के बाद दिखते हैं असली शेर
विलुप्त हो चुके शेर नृत्य को जीवित करने के लिए करीब 15 वर्ष पहले युवा जागृति मंच ने नए सिरे से शुरुआत की. पहले पहल तो युवा नृत्य सीखने और करने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन जब उन्हें उसके ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के बारे में बताया गया तो वह इसमें रूचि लेने लगे. आज दमोह में करीब 45 युवा शेर नृत्य के लिए पूरी तरह से तैयार हो चुके हैं और अब वह अपने बच्चों को भी इस कार्य के लिए तैयार कर रहे हैं. मूलतः शेर नृत्य वाल्मीकि समाज के लोग करते हैं, और यह पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है.