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महाशिवरात्रि पर्व: अर्धनारीश्वर मन्दिर में सूर्य करते हैं सबसे पहले आराधना

अर्धनारीश्वर ज्योतिर्लिंग विश्व प्रसिद्ध है. यहां शिव और पार्वती का अद्भुत शिवलिंग है. जिसमें आधे शिवजी और आधे पार्वती जी हैं. यहां पर विशेष रूप से पूजन अर्चना किया जाता है.

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अर्धनारीश्वर मन्दिर

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Published : Mar 11, 2021, 11:51 AM IST

छिन्दवाड़ा।अर्धनारीश्वर ज्योतिर्लिंग विश्व प्रसिद्ध है. यहां शिव और पार्वती का अद्भुत शिवलिंग है. जिसमें आधे शिवजी और आधे पार्वती जी हैं. यहां पर विशेष रूप से पूजन अर्चना किया जाता है. लोगों का मानना है कि जो वहां मनोकामना मांगते हैं उसे शिव पार्वती पूरा करते हैं. पौराणिक आधार पर यहां कई कहानियां प्रचलित है. यह दैत्य गुरु शुक्राचार्य की कर्मभूमि है. ऐसी कई कहानियां अर्धनारीश्वर मंदिर की है.

सूर्य करते हैं सबसे पहले आराधना

कई पौराणिक मान्यताएं भी हैं अर्धनारीश्वर मंदिर की

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दैत्य गुरु शुक्राचार्य भगवान भोलेनाथ के अनन्य भक्त थे. उन्होंने सर्पिणी तट पर तपस्या की थी. वह स्थान मंदिर परिसर है, शुक्राचार्य की तपस्या से भोलेनाथ प्रसन्न हुए तब शुक्राचार्य ने भगवान से कहा मैं केवल माताजी को आपके साथ देखना चाहता हूं, तब भगवान ने अर्द्धनारिश्वर रूप में उन्हें देखें. उसी दिन से यहां पर अर्धनारीश्वर भगवान ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए.

मंदिर का निर्माण महामृत्युंजय मंत्र पर है आधारित
भोलेनाथ की शिवलिंग


शक्तिपीठ अर्धनारीश्वर मंदिर का निर्माण महामृत्युंजय मंत्र पर आधारित है. इसलिए इसकी विशेषता और बढ़ जाती है. बताया जाता है कि अर्धनारीश्वर ज्योतिर्लिंग विश्व के कुछ ही जगहों पर स्थापित है. उनमें से एक सौसर का मोहगांव हवेली है. जहां पर सूर्य देवता सीधे मंदिर के भीतर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करते हैं.

अर्धनारीश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर मोहगांव हवेली तहसील सौसर जिला छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश में है. सौसर से लगभग 06 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अर्धनारीश्वर ज्योतिर्लिंग शिव और पार्वती का शिवलिंग है. जिसके दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं.

भोलेनाथ

मंदिर में चार धाम के नाम से है दरवाजे

यह स्थल चार धाम (बद्री ,केदार, द्वारिका, जगन्नाथपुरी ,रामेश्वरम) 12 ज्योतिर्लिंग कथा त्रिपुरा सुंदरी केंद्र बिंदु है. सनातन पुरातन काल से इस ज्योतिर्लिंग मंदिर से निर्माण संरचना और वस्तु की महामृत्युंजय मंत्र आधारित होने से यहां शक्तिपीठ आया. 13वीं शताब्दी और 15वीं शताब्दी के बीच मंदिर का जीर्णोद्धार देवगढ़ के गोंड राजा और नागपुर के घोसले राजा द्वारा किया गया था.

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