भिंड। अंचल का भिंड जिला भिंडी ऋषि की तपोभूमि कहलाता है. यह वह क्षेत्र है, जिसका नाता और पहचान बागी और बीहड़ों से रही है. हालांकि इसके विपरीत भिंड ऐतिहासिक धरोहरों और इतिहास को भी अपने आंचल में समेटे हुए है. सदियों पुराने मंदिर, एतिहासिक किले और प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर भिंड आज भी विकास से कोसों दूर है. ETV भारत की इस खास रिपोर्ट के जरिए जानिए कि आखिर वो कौन से तथ्य हैं, जो सकारात्मक रूप से भिंड के लिए विकास में मील का पत्थर साबित हो सकते थे.
भिंडी ऋषि के नाम पड़ा जिले का नाम: साल 1948 में जब मध्यभारत का गठन हुआ, उस समय बनाए गए 16 जिलों में भिंड भी शामिल था. हालांकि बाद में राज्यों के पुनर्गठन में यह साल 1956 में मध्यप्रदेश का हिस्सा बना. भिंड का इतिहास सदियों पुराना है, कहा जाता है कि भिंडी ऋषि के नाम पर इस क्षेत्र का नाम भिंड पड़ा था. इतिहास कहता है कि शुंग, मौर्य, नंद, कुषाण, गुप्त, हूण, गुर्जर, प्रतिहार, कछवाहा, सूर, मुगल आदि शासकों का भिंड में काफी समय तक शासन रहा. 18वीं शताब्दी में सिंधिया शासकों द्वारा अधिकार में किए जाने से पहले भिंड भदौरिया, चौहान राजपूतों का क्षेत्र था. जिसकी वजह से इतिहास पन्नों में भिंड को कई ऐतिहासिक धरोहर सौगात में मिली हैं.
देश के सुंदर किलों में शुमार है गोहद का किला:भिंड के गोहद में बना गोहद किला बेहद खूबसूरत किलों में शुमार है. इस किले का निर्माण 16वीं सदी में हुआ था. किला दो भागों में बना है, पहला पुराना किला और दूसरा नया महल. पुराने किले का निर्माण 1739 ई. में जाट राजा भीमसिंह ने करवाया था. वहीं नए महल का निर्माण जाट राजा छत्रपति सिंह द्वारा कराया गया था. किले पर अधिकांशतः जाट एवं भदावर राजाओं और फिर मराठों का अधिकार रहा है. वर्तमान में पुराना किला एवं नया महल मध्य प्रदेश सरकार के पुरातत्व विभाग के अधीन है.
भदावर राजाओं ने कराया था अटेर किले का निर्माण: भिंड में एक नहीं बल्कि दो बेहद खूबसूरत और ऐतिहासिक दुर्ग हैं. गोहद किले के अलावा दूसरा किला अटेर के देवगिरी पर्वत पर बना है. यह देवगिरी दुर्ग, जिसे अटेर किले के नाम से भी जाना जाता है, दोनों ही किले जिले की शान हैं. देख-रेख के अभाव में आज दोनों ही दुर्ग खंडहर में तब्दील हो रहे हैं. अटेर किले का इतिहास भी सदियों पुराना है, मध्यप्रदेश के छोर पर बना भिंड का अटेर किला कभी अपनी शानों-शौकत के लिए मशहूर था. अटेर के किले का निर्माण भदौरिया राजा बदन सिंह ने 1664 ई. में शुरू करवाया था. भदौरिया राजाओं के नाम पर ही भिंड क्षेत्र को पहले 'बधवार' कहा जाता था. गहरी चंबल नदी की घाटी में स्थित ये किला भिंड से करीब 35 किलोमीटर पश्चिम में है.
खंडहर में तब्दील होता महाभारत कालीन पर्वत पर बना देवगिरी दुर्ग: अटेर किला खुद में सैकड़ों किवदंतियां, कई सौ किस्से और न जाने कितने ही रहस्यों को छुपाए हुए आज भी आन बान से खड़ा है. महाभारत में जिस देवगिरी पहाड़ी का उल्लेख आता है, ये किला उसी पहाड़ी पर है. इसका मूल नाम देवगिरी दुर्ग है, आज यह किला मरम्मत और देखभाल के अभाव में खंडहर में तब्दील होता जा रहा है. अटेर किले में एक के बाद एक महल और कलात्मक चित्रों की श्रृंखला उपेक्षा के चलते अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं. बताया जाता है कि किले की प्राचीर से कभी भदावर वंश की विजय पताका फहराया करती थी. चंबल नदी से दो किलोमीटर दूर उत्तरी किनारे पर स्थित अटेर किले का इतिहास करीब 400 साल पुराना बताया जाता है. खजाने की चाह में लोगों ने अटेर दुर्ग के तलघर और दीवारों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाया है. स्थानीय लोगों के मुताबिक अधिकारियों की लगातार अनदेखी और उपेक्षा के चलते किला अपना अस्तित्व खोने की कगार पर है.
पांडरी में स्थित है विश्व का एक मात्र अष्टकोणीय शिवलिंग: भिंड में इन किलों के अलावा 11वीं सदी के प्रसिद्ध और प्राचीन मंदिर भी हैं. जिनमें 11वीं सदी का वनखंडेश्वर महादेव मंदिर, जिसका निर्माण खुद महाराजा पृथ्वीराज चौहान चौहान ने कराया था. इसके अलावा दंदरौआ धाम के नाम से प्रसिद्ध 800 साल पुराना डॉक्टर हनुमान का मंदिर प्रमुख है. इन दोनों ही मंदिरों में लाखों श्रद्धालु दर्शन करने पहुंचते हैं, भिंड में 100 से अधिक शिव के मंदिर हैं. वहीं कुछ प्राचीन मंदिर ऐसे भी हैं, जो इतिहास के गुमनाम पन्नों में खो गए. भिंड का नाता महाभारत काल से जुड़ा रहा है, अटेर के देवगिरी पर्वत के अलावा एक प्राचीन शिव मंदिर भी भिंड में मौजूद है. इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना खुद पांडवों में से महाबली भीम ने की थी. यहां स्थापित शिवलिंग अपने आप में अनूठा और विश्व का एक मात्र ऐसा शिवलिंग है जो गोलाकार ना होकर अष्टकोणीय है. यह मंदिर मुख्यालय से 40 किलोमीटर उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे पांडरी गांव में स्थिति है, जोकि गुमनामी में खो चुका है.