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मिस्र ने 1960 में जो किया हम भाखड़ा बांध निर्माण के समय करते तो नहीं डूबते सदियों पुराने मंदिर

1961 में भाखड़ा बांध में पानी छोड़ने के बाद बिलासपुर में गोबिंद सागर झील बनी. इसी झील में पुराने बिलासपुर ने जलसमाधि ले ली. इसके साथ 8वीं से 15वीं सदी के बीच बने ऐतिहासिक और प्राचीन मंदिर भी जलमग्न हो गए. अब इन मंदिरों को पानी से अपलिफ्ट कर रिलोकेट करने को लेकर प्रदेश भाषा,कला एवं संस्कृति विभाग ने एक्सपर्ट टीम को बुलावा भेजा है.

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Published : Jun 23, 2019, 3:19 PM IST

Updated : Jun 24, 2019, 5:48 PM IST

डिजाइन फोटो

शिमला: सांस्कृतिक धरोहरें देश और उससे जुड़े हुए लोगों की पहचान होती हैं. यह धरोहरें लोगों को बीते जमाने की याद दिलाने के साथ-साथ उस देश की पहचान भी बन जाती है. ताजमहल आज हमारे देश की पहचान होने के साथ-साथ हमे शाहजहां के शासनकाल की याद भी दिलाती हैं.

कुछ ऐसी ही धरोहरें हिमाचल के बिलासपुर में थीं. 8वीं से 15वीं सदी तक दक्षिण शिखर शैली में बने मंदिर, बिलासपुर राजा का महल बिलासपुर की पहचान थी, लेकिन आज इन मंदिरों के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. इसके पीछे का कारण इतिहास के पन्नों में दर्ज है.

भाखड़ा बांध के समय बिलासपुर आए पहले प्रधानमंत्री

1961 में भाखड़ा बांध में पानी छोड़ने के बाद बिलासपुर में गोबिंद सागर झील बनी. इसी झील में पुराने बिलासपुर ने जलसमाधि ले ली. इसके साथ 8वीं से 15वीं सदी के बीच बने ऐतिहासिक और प्राचीन मंदिर भी जलमग्न हो गए. 9 अगस्त 1961 में भाखड़ा बांध सतलुज नदी के पानी के साथ-साथ बिलासपुरियों के आंसुओं से भी भरा था, क्योंकि वहां के बाशिंदों के खेत-खलिहान,घर सब आंखों के सामने पानी में तिनकों की तरह तैर रहे थे.

नदी में डूबा मंदिर

अब इन मंदिरों को पानी से अपलिफ्ट कर रिलोकेट करने को लेकर प्रदेश भाषा,कला एवं संस्कृति विभाग ने एक्सपर्ट टीम को बुलावा भेजा है. झील के पानी में डूबे इन मंदिरों को किस तरह से अपलिफ्ट कर दूसरी जगह पर स्थापित किया जा सकता है इसे जांचने के लिए 28 जून को इंडियन नेशनल रूरल हेरिटेज ट्रस्ट की टीम जिला बिलासपुर पहुंचकर इन मंदिरों का निरीक्षण करेगी. टीम मंदिरों का निरीक्षण कर इस बात को तय करेगी कि किस तकनीक से इन प्राचीन मंदिरों को पानी से निकाल कर किसी दूसरी जगह पर रिलोकेट किया जा सकता है, लेकिन अब शायद बहुत देर हो चुकी है, क्योंकि कई मंदिर, महल क्षतिग्रस्त हो चुके हैं.

क्षतिग्रस्त प्राचीन मंदिर

जब बिलासपुर पर संकट मंडरा रहा था ठीक उसी समय 1960 में इजिप्ट में स्थित ऐतिहासिक धरोहर अबु सिंबल नाम के मंदिर पर भी डूबने का खतरा पैदा हो गया था. 1960 में जब अबु सिंबल पर संकट के बादल मंडराने लगे थे, तब कई देशों ने एकजुट होकर इसे बचाने का प्रयास किया था. इस एक मंदिर ने सारे विश्व को एकजुट कर दिया था.

अबु-सिंबल मंदिर

अबू सिंबल मंदिर को बचाने के लिए क्यों पूरा विश्व एकजुट हुआ?

आखिर क्यों इजिप्ट (मिस्र) के अबू सिंबल मंदिर को बचाने के लिए पूरा विश्व एकजुट हो गया. ये जानने से पहले हमें मिस्र की संस्कृति के बारे में जान लेना चाहिए. इजिप्ट में बने पिरामिड, ममी पूरी दुनिया में मशहूर है. 5 हजार साल पुरानी मिस्र की सभ्यता के इतिहास में ढेरों राज छिपे हैं. ये राज वैज्ञानिकों के लिए आज भी शोध का विषय हैं. वैज्ञानिक इन अनसुलझे पहलुओं पर शोध भी कर रहे हैं. इन्हीं में से एक है अबु और सिंबल मंदिर. ये इजिप्ट के दो प्राचीन मंदिर हैं. इन्हे 1300 ईसवी में फैरो रामेसेस द्वितीय ने नील नदी के किनारे बनाया था.

नील नदी के किनारे बना अबु सिंबल मंदिर

चट्टानों को काटकर इस मंदिर और मूर्तियों को बारीकी से बनाया गया था. ये मंदिर मिस्र की वास्तुकला का अद्भुत नमूना है. इस मंदिर के अंदर रामेसेस द्वितीय और तीन देवताओं की मूर्तियां हैं. इसका सामने का हिस्सा बहुत ही भव्य और सुंदर है. इस भाग में बैठे हुए फैरो( मिस्र के शासक) की 4 मूर्तियां बनीं हुई हैं. इन मंदिरों की ऊंचाई लगभग 20 मीटर है.

अबू सिंबल मंदिर

दूसरा मंदिर रामेसेस ने अपनी पत्नी के लिए बनवाया

दूसरा मंदिर रामेसेस ने अपनी पत्नी के लिए बनवाया जहां उसने अपनी पत्नी की मूर्ति बनवाई हुई है. इस बड़े मंदिर की खासियत है कि यहां साल में केवल दो बार ही सूरज की रोशनी अंदर तक जाती है. एक 21 फरवरी और दूसरा 21 अक्टूबर. यह दोनों दिन सूरज की रोशनी मंदिर के अंदर तक जाती है और सीधे जाके रामेसेस की मूर्ती पर पड़ती है. रामेसेस ने इसे इतने खास ढंग से बनवाया है कि और किसी भी दिन रोशनी मूर्ति तक नहीं पहुंचती. माना जाता है कि यह दोनों दिन में से एक रामेसेस के जन्म का दिन है और दूसरा उसके राजा बनने का.

अबु-सिंबल मंदिर में पड़ी रोशनी

हजारों सालों तक रेत में दबा रहा मंदिर

ये अद्भुत मंदिर लगभग हजारों सालों तक रेत में दबा रहा. किसी को मालूम नहीं था रेगिस्तान की कई फीट मोटी परत के नीचे ऐसा अदभुत मंदिर बना है. 1813 में इसे स्विस एक्सप्लोरर(स्विस नागरिक) ने अबु सिंबल नाम के बच्चे की मदद से इस मंदिर को खोज निकाला. अबू सिंबल नाम का बच्चा ही पहली बार स्विस एक्सप्लोरर को मंदिर की जगह ले गया था. अबु-सिंबल और स्विस को पहले रेत की मोटी परत के नीचे बस इसका ऊपरी हिस्सा ही दिखाई दे रहा था. इसके बाद स्विस एक्सपोरर ने दूसरे लोगों को भी इसकी जानकारी दी. बात आग की तरह दूर-दूर तक फैल गई. इसके बाद से मंदिर को रेत हटाकर बाहर निकाला गया.

अबु-सिंबल मंदिर

ऐसा पड़ा मंदिर का नाम अबु-सिंबल
मंदिर को खोजने वाले बच्चे अबु सिंबल के नाम पर ही मंदिर का नाम अबु सिंबल पड़ा. 1950 तक ये मंदिर और इसके भीतर और बाहर बनी प्रतिमाएं रेत के थपेड़े सहते हुए शान से खड़ी रहीं, लेकिन 1960 में जब नील नदी पर अस्वान बांध बनने की योजना तैयार हुई और मंदिर पर खतरे के बादल मंडराने लगे. यह बांध अबु सिंबल मंदिर से 280 किलोमीटर दूर था. भाखड़ा बांध की तरह ये अस्वान बांध भी विकास के साथ सांस्कृतिक विनाश लाया था. क्योंकि नदी का जलस्तर बढ़ने और बाढ़ का खतरा बढ़ने पर मंदिर को सबसे ज्यादा खतरा था.

अबु-सिंबल मंदिर

एक-एक पत्थर को नंबर दे कर मार्क किया गया

समस्या से निपटने के लिए इजिप्ट और सूडान की सरकार ने युनेस्को से मदद मांगी और यहीं से इस प्राचीन धरोहर को बचाने के लिए विश्व समुदाय एकसाथ आगे आया. कई देशों ने अपने इंजिनियर्स को इजिप्ट भेजा. इंजिनियर्स ने काम को करने के लिए हाथ के औजारों से लेकर मशीनों का भी इस्तेमाल किया. दोनों मंदिर और इनकी मूर्तियों पत्थर से बनी हैं. मूर्तियों को 20 टन वजनी पत्थरों में काटा गया. एक-एक पत्थर को नंबर दे कर मार्क किया गया था. इसके बाद पत्थरों को नए स्थान पर शिफ्ट किया गया और वैसे ही स्थापित किया गया जैसे कि वह पहले था.

अबु-सिंबल मंदिर

पांच महाद्वीपों की 40 टेक्निकल टीमों ने किया काम

इस काम को पूरा करने के लिए पांच महाद्वीपों की 40 टेक्निकल टीमों ने मिलकर अंजाम तक पहुंचाया. इसे स्थानांतरित करने में करीब 40 मिलियन डॉलर खर्च हुए थे. इस मिशन के तहत पूरे 22 स्मारकों को एक जगह से दूसरी जगह पर स्थापित किया गया. ये काम 1968 में पूरा हो चुका था, लेकिन काम पूरी तरह से समाप्त होने में 2 साल और लगे यानी 1980 में जाकर ये काम खत्म हुआ.

अबु-सिंबल मंदिर

इजिप्ट ने अपनी धरोहर बचा ली हम नहीं बचा पाए

इजिप्ट ने अपना अबु-सिंबर टैंपल बचा लिया, लेकिन हम गोबिंदसागर झील में कहलूर रियासत का रंग महल व नया महल उनसे भी पुराने महल, शिखर शैली के 99 मंदिर, स्कूल कॉलेज, पंजरुखी नालयां का नौण, दंडयूरी, बांदलिंया, गोहर बाजार, सिक्खों का मुड में गुरुथान, गोपाल जी का मंदिर और साथ में कचहरी परिसर सांढू के मौदान को डूबने से नहीं बचा सके. 1960 के बाद जन्म लेने वालों को उनके माता-पिता न सांढू मैदान में घूमा सके न ही अपनी धरोहर बता सके.

पानी से बाहर आए मंदिर

कवियों का छलका दर्द

वास्तव में एक शहर का पानी में डूबना मात्र मिट्टी, ईंट, पत्थर के घरों का डूबना नहीं था. उस शहर का डूबना एक संस्कृति का डूबना था. बिलासपुर ने विकास के साथ सांस्कृतिक धरोहरों का विनाश को झेला था. बिलासपुर के पूर्व विधायक व शायर दिवंगत पंडित दीनानाथ अपना दर्द कविता में कुछ इस तरह से दर्द बयां करते हैं 'बढ़ चला सतलुज का पानी बढ़ चला, जिस जगह पर व्यास ने डंका बजाया ज्ञान का, और फिर शुकदेव ने आसन जमाया ध्यान का, ऐ वतन वह सरजमीं अब तेरे अर्पण हो गई'. एक दूसरी नजम नौ अगस्त की शाम को वे लिखते हैं 'बढ़ने लगी बांध की शोखियां, वह सतलुज मेरा हड़बड़ाने लगा, मचा गुल शहर में तू चल भाग चल, वह आने लगा पानी आने लगा’

गोबिंद सागर झील में डूबा मंदिर

बिलासपुर कॉलेज के साठ के दशक में अंग्रेजी के प्राध्यापक व शायर बिमल कृष्ण अश्क की एक नजम कहती है 'अब इस बस्ती के लोगों में पहले जैसी बात नहीं, चेहरों पर लजीली सुबह नहीं, आंखों में नशीली रात नहीं, पीपल में झूला नहीं रहा, चरखों की चर्र-चर्र डूब गई'.

भाखड़ा बांध का निरीक्षण करते चाचा नेहरू

साठ साल से अधिक आयु के लोग याद करते हुए कहते हैं कि 'झील में डूबे शहर की हर बात निराली थी. वीरवार को खाखी शाह की मजार पर हिंदू मुसलमान इक्ट्ठे होकर वहां मीठा चूरमा चढ़ाते और एक दूसरे को बांटते थे. वहीं, खाखी शाह परिसर में शायरों की महफिलें सजती थीं. गजलों, कबालियां, ढुमरियों के दौर चलते. रियासत काल में झील में डूबे बिलासपुर शहर के लोगों ने सैर के त्यौहार पर सांढू में राजा का दरबार सजता देखा. दिवाली पर बच्चे घास फूस के घेरसू (सूखी घास) कोई बीस दिन पहले ही जलाना शुरू कर देते थे. लड़कियां चेहरे पर टिकू-बिंदू(टिका-बिंदी) लगाकर गीत गाती हुई आस पड़ोस में शाम को निकल जाती थीं'.

झील में डूबे उस शहर की संस्कृति भी एक और विशेष झलक यह थी कि सावन के महीने में घर-घर छोटे -छोटे बच्चों को झूलने के लिए पींग किसी पीपल या आम के पेड़ की टहनी में डाल दी जाती थी. बड़ी आयु के लोग इस परंपरा को अच्छी तरह निभाते थे. इस 'पींगा दा महीना' कहा जाता था. यह सब कुछ उसी दिन समाप्त हो गया था जब पुराना बिलासपुर शहर गोबिंदसागर झील में डूबा था.

भाखड़ा बांध

टेंपल ऑफ रिसर्जेंट इंडियाज

भाखड़ा बांध को टेंपल ऑफ रिसर्जेंट इंडियाज का नाम दिया गया, लेकिन इस टैंपल ने 99 टैंपल को अपनी गोदी में दफन कर लिया. भाखड़ा बांध के उद्घाटन के समय देश के पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि ये आधुनिक भारत की नींव का पहला पत्थर है.

उद्घाटन के समय देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल

भाखड़ा बांध आज देश को बिजली, पानी, रोशनी दे रहा है, लेकिन भाखड़ा विस्थापित और बांध में डूबी संस्कृति घुप अंधेरे में हैं. इतने साल बीत जाने के बाद न तो भाखड़ा विस्थापितों का दर्द किसी ने सुना न किसी ने पानी में डूबी धरोहरों को बाहर निकालने का काम किया. मंदिरों को बाहर निकलाने के नाम पर टीमें हर साल आती हैं और चली जाती हैं ठीक वैसे ही भाखड़ा विस्थापितों की समस्याओं को प्रशासन-सरकार सुनकर हल करने का आश्वासन देकर भूल जाती है.

Last Updated : Jun 24, 2019, 5:48 PM IST

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