नई दिल्ली:साल 1959 में तिब्बत से आए शरणार्थियों को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस इलाके में बसने की अनुमति थी. तब से ही वे लोग यहां रह रहे हैं. 60 साल से भी ज्यादा समय हो गया. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में रहकर ये लोग अपनी आजीविका चला रहे हैं. मजनू का टीला इलाके में करीब तीन हजार बुद्धिस्ट शरणार्थी रहते हैं और पूरी दिल्ली की बात की जाए तो करीब आठ से दस हजार बुद्धिस्ट शरणार्थी रह रहे हैं.
इस जगह का इतिहास 15वीं शताब्दी के जुड़ा हुआ है. इसका नाम मजनू का टीला पड़ने के पीछे एक रोचक कहानी है. बताया जाता है कि इसका नाम सूफी के नाम पर पड़ा. यह भी बताया जाता है कि सिकंदर लोदी के शासनकाल में यहां गुरु गुरुनानक देव जी आए थे. यहीं पर वह एक सूफी फकीर से मिले, जो ईरान का रहने वाला था. सूफी होने की वजह से लोग उसे मजनू कहकर बुलाने लगे. वो फकीर यमुना के पास मौजूद टीले पर रहता था. तभी से इस जगह को 'मजनू का टीला' कहा जाने लगा.
तिब्बस यहां आने के बाद ये लोग यहीं पर बस गए. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में बुद्धिस्ट शरणार्थियों की संख्या करीब 10 हजार है. सभी लोगों के अलग-अलग व्यवसाय हैं. ये प्राइवेट नौकरी से लेकर अपना कारोबार तक करते हैं. ज्यादातर कपड़े के व्यापारी हैं. कई लोगों के आधारकार्ड बने हुए हैं, सभी के पास शरणार्थी कार्ड भी है. मौजूदा समय में सरकार से इन लोगों को ज्यादा शिकायतें नहीं है, इनका कहना है कि सरकार इन्हें सहयोग कर रही है. जब तिब्बत आजाद हो जाएगा तो सभी लोग अपने वतन जाकर बसने की उम्मीद में समय काट रहे हैं.