लंदन : पाकिस्तान में 6 सितंबर को 1965 के भारत-पाक युद्ध की याद में रक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो 17 दिनों तक चला था. हालांकि, जब कई पूर्व सैन्यकर्मी और रणनीतिक विश्लेषक शाम के प्रसारण के दौरान वर्दी में पुरुषों (सैनिक) की भूमिका की प्रशंसा करने के लिए एक-दूसरे के बीच प्रतिस्पर्धा करते हुए टेलीविजन चैनलों पर दिखाई दे रहे थे, तब सादे कपड़ों में पुरुष लोकप्रिय पाकिस्तानी यूट्यूब ब्लॉगर जफर नकवी के दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे, जो कि फेडरल ब्यूरो ऑफ रेवेन्यू (एफबीआर) से प्रतीत हो रहे थे.
नकवी प्रधानमंत्री इमरान खान की आर्थिक नीतियों के अटूट आलोचक हैं. मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियों की उनकी तीखी आलोचना जारी रहने के कारण उनके यूट्यूब सब्सक्राइबर (सदस्य) बढ़ गए हैं. अपने लोकप्रिय समर्थन से उत्साहित नकवी ने उन मामलों को भी जोर-शोर से उठाने का फैसला किया, जिन्हें बहुत संवेदनशील माना जाता है, जिसमें पाकिस्तान सेना भी शामिल है.
20 जून को अपलोड किए गए एक वीडियो में, नकवी ने अपने दर्शकों को बताया कि इस्लामाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सुनवाई से इनकार किए जाने के बाद एक याचिका अब लाहौर उच्च न्यायालय में दायर की गई है. याचिका पाकिस्तानी सेना के एक पूर्व मेजर जनरल मंजूर अहमद ने दायर की है, जिन्होंने सैन्य प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा द्वारा अनुमोदित फैसले को चुनौती दी थी. अहमद ने सेना पर अनुचित बर्खास्तगी का आरोप लगाया है.
जफर नकवी पत्रकार हैं, जिन्होंने 2020 में अपना यूट्यूब चैनल लॉन्च करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ने का फैसला करने से पहले टेलीविजन चैनल अब-तक टीवी, एआरवाई और बोल के लिए काम किया है. शुरुआत से ही नकवी ने सैन्य विरोधी कहानी साझा की है जिसके लिए पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) के नेता नवाज शरीफ ने टॉन यानी स्वर सेट किया.
लेकिन मुझे गलत मत समझो. हालांकि नकवी ने राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार के मामले में सैन्य जनरलों की भूमिका की आलोचना की है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह एक संस्था के रूप में पाकिस्तानी सेना के खिलाफ हैं. नकवी किसी भी विदेशी आक्रमण के खिलाफ एक आवश्यकता के रूप में पाकिस्तानी सेना की भूमिका का समर्थन करते हैं. लेकिन वह प्रमुख बात नहीं है. मुद्दा यह है कि पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के किसी भी संकेत के गले में सेंसरशिप का फंदा कस रहा है.
अपहरण, मार-पीट, यहां तक कि पत्रकारों की हत्या भी ऐसी हरकतें हैं जो अब बहुत बार हो चुकी हैं और समझा जाता है कि यह कार्रवाई चेतावनी के रूप में काम करती है और मीडिया पर खुद पर आत्म-सेंसरशिप लगाने के लिए मजबूर करती है. हाल ही में ऐसी दो घटनाएं अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचने में कामयाब रहीं. एक अपहरण मतिउल्लाह जान (जनवरी 2021) और दूसरा ब्लॉगर असद अली टूर (मई 2021) का देखने को मिला है.
आवाज उठाने वाले का अपहरण कर लिया गया और उसे जमकर पीटा गया और कुख्यात अज्ञात हमलावरों द्वारा उसके आवास पर ही पीट-पीटकर उसकी हड्डियों को तोड़ दिया गया.
पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई को संदर्भित करने के लिए आमतौर पर पाकिस्तान में इस्तेमाल किया जाने वाला एक वाक्यांश, 'ये जो नामालूम हैं, ये सब को मालूम है', अब एक लोकप्रिय नारा बन चुका है, जो कि सरकार विरोधी प्रदर्शनों और रैलियों में समान रूप से उठाया जाता है.