नई दिल्ली: एक फरवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपना पहला पूर्ण बजट पेश करेंगी. करोड़पति से लेकर आम आदमी तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरा देश इस बजट भाषण पर अपनी निगाहें लगाए रहेगा. देश को उम्मीद है कि यह बजट भारत के ढलती अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करेगा.
भारतीय अर्थव्यवस्था फिलहाल 11 वर्षों में अपनी सबसे धीमी गति से बढ़ रही है. बेरोजगारी दर चार दशकों के उच्चतम स्तर पर है और खाने-पीने के समानों की कीमतें आसमान को छू रही हैं.
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विनिर्माण क्षेत्र में उदासी छायी हुई है. यह वह क्षेत्र है जो अर्ध-कुशल श्रम शक्ति के बड़े हिस्से को समायोजित करता है. वहीं, कृषि क्षेत्र और ग्रामीण विकास की हालत भी खस्ता है.
हाल ही में जारी वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक, ग्लोबल सोशल मोबिलिटी इंडेक्स और दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम समिट की ओर से ऑक्सफेम रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से संकेत दिया गया है कि भारत की धन सृजन दर में गिरावट आ रही है और अमीर-गरीब के बीच का अंतर बढ़ता ही जा रहा है और इस अंतर को कम करने के लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए.
क्या हो आगे का रास्ता ?
सरकारी खर्च बढ़ाना एक बेहतर समाधान हो सकता है. वर्तमान आर्थिक मंदी का मुख्य कारण आपूर्ति की अड़चनों के बजाय कम खपत है. लोग खर्च करने से बचते हुए नजर आ रहें या उनके पास पैसों की कमी है. इसलिए सरकार को इस ओर कोई ठोस कदम उठाना होगा.
भारतीय रिजर्व बैंक की एक हालिया रिपोर्ट ने भी गिरते हुए उपभोक्ता विश्वास, व्यापार विश्वास और कारखानों द्वारा क्षमता उपयोग की दिशा में सुझाव दिया है जो मांग में गिरावट का संकेत देता है. इसलिए समाधान काफी हद तक अर्थव्यवस्था में मांग को बढ़ाने की ओर होना चाहिए.
साल 2019 में देश के बैंकों को विनियमित करने वाले रिजर्व बैंक ने प्रमुख ब्याज दर (रेपो रेट) को 135 आधार अंकों तक कम कर दिया. आरबीआई का मानना था कि रेपो दर कम हो जाने से ब्याज दरें कम हो जाएंगी. फिर यह मकान, कार खरीदने के लिए क्रेडिट मांग को बढ़ाएगा. दुर्भाग्य से उसका फायदा अभी तक जमीनी स्तर पर मिलता नहीं दिख रहा.
इस समय यह बेहतर होगा कि आगामी बजट में सार्वजनिक निवेशों और खर्च को समयबद्ध तरीके से बढ़ाकर आर्थिक मंदी से निपटने का प्रयास किया जाना चाहिए.
राजकोषीय घाटे का मिथक
सरल शब्दों में फिस्कल डेफिसिट किसी दिए गए वित्तीय वर्ष में सरकार द्वारा आवश्यक कुल उधार को दर्शाता है. यह आय और खर्च के बीच का अंतर है.
ऐसे तर्क हैं कि अधिक सरकारी खर्च राजकोषीय घाटे को बढ़ा सकते हैं और मंहगाई का कारण भी बन सकते हैं और अर्थव्यवस्था के बढ़ने की गति धीमी कर सकते हैं.
वहीं, आरबीआई की रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि अर्थव्यवस्था में कम क्षमता है. इसलिए सरकारी खर्च अधिक रोजगार पैदा करेगा और लोगों के हाथों में अधिक आय उत्पन्न करेगा. जिसका उपयोग आगे उपभोग के लिए किया जाएगा और अर्थव्यवस्था पुनर्जीवित होगी.
इसके बाद व्यापार विश्वास और कर राजस्व में सुधार होगा. जिससे राजकोषीय स्थिति बेहतर हो जाएगी.
इसलिए अगर राजकोषीय घाटे के आंकड़े ज्यादा हैं तो चिंता करने की जरूरत नहीं है. वे वह कीमत हैं जो बेहतर कल के लिए हम आज चुका रहे हैं.