हैदराबाद : उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और फिर गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरीके से अपनी सत्ता बरकरार रखी, उससे पार्टी 2024 में भी फायदे की उम्मीद जरूर कर सकती है. भाजपा के लिए सबसे बड़ी जीत यूपी और गुजरात की रही.भाजपा ने उत्तर प्रदेश में 37 वर्षो बाद सरकार दोहराने का इतिहास बनाया. 2017 के मुकाबले उनकी कुछ सीटें कम जरूर हुईं और समाजवादी पार्टी ने विपक्षी दल के रूप में बड़ी सफलता जरूर हासिल की, फिर भी इतने बड़े प्रदेश में सत्ता को बरकरार रखना ही राजनीतिक सफलता के झंडे गाड़ने वाली बात है. यूपी चुनाव के दौरान सबसे ज्यादा लोगों की नजरें जाट लैंड पर टिकीं थीं. किसान आंदोलन की वजह से जाट नाराज बताए जा रहे थे. किसान आंदोलन के प्रमुख नेता और जिनकी अगुआई में पूरा आंदोलन हुआ, महेंद्र टिकैत यहीं से आते हैं. टिकैत ने इशारों ही इशारों में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की अपील भी की थी. जाट, मुस्लिम और दलित गठजोड़ तक की बात कही गई. सपा और आरएलपी ने गठबंधन कर लिया. आरएलपी प्रमुख जयंत चौधरी ने दावा किया कि जाट उनके साथ ही खड़े होंगे. इस गठबंधन में ओमप्रकाश राजभर भी थे. स्वामी प्रसाद मौर्य भाजपा छोड़कर सपा में चले गए. योगी आदित्यनाथ को 'बुलडोजर बाबा' के रूप में प्रचारित किया गया. कानून और व्यवस्था संभालने के लिए योगी आदित्यनाथ ने जो कड़े कदम उठाए थे, वह भी एक मुद्दा बना. योगी आदित्यनाथ ने बिना किसी का नाम लिए ही 'अस्सी बनाम बीस' की लड़ाई भी बताई. विपक्ष की ओर से बेसहारा पशु, पुरानी पेंशन, किसान आंदोलन, बेरोजगारी, नाराज जाट, विधायकों की और विधायकों से नाराजगी को मुद्दा बनाया गया. पर परिणाम क्या हुआ, सबके सामने है. भाजपा को 255, सपा को 111, कांग्रेस को दो, बीएसपी को एक और अन्य को 34 सीटें मिलीं.look back 2022.
यूपी की तरह ही भाजपा के लिए गुजरात की जीत रही. गुजरात में भाजपा ने रिकॉर्ड सातवीं बार जीत हासिल की. इस चुनाव की खासियत यह रही कि भाजपा का यह अब तक का सबसे अच्छा परफॉर्मेंस रहा है. भाजपा ने 182 में से 156 सीटें हासिल कर कांग्रेस के उस रिकॉर्ड को तोड़ दिया, जब 1985 में कांग्रेस को 149 सीटें मिली थीं. गुजरात चुनाव में कांग्रेस 17 सीटों पर सिमट गई. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा में व्यस्त रहे. उन्होंने गुजरात में मात्र दो रैलियां कीं. कांग्रेस की ओर से राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनाव संभालने की जिम्मेदारी दी गई थी. लेकिन चुनाव के बीच में ही राजस्थान प्रकरण में उठा-पटक होने की आशंका से वह खुद 'ठिठक' गए. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पीएम मोदी के लिए 'रावण' जैसे शब्द का प्रयोग कर दिया. भाजपा ने इसे भी भुनाया. इस चुनाव में आम आदमी पार्टी ने सबको अचरज में डाल दिया. हालांकि, पार्टी को मात्र पांच सीटें मिलीं, लेकिन उसने 13 फीसदी वोट हासिल कर कांग्रेस की कमर तोड़ दी. भाजपा का तो वोट प्रतिशत बढ़ा, लेकिन कांग्रेस का मत प्रतिशत 27 फीसदी के आसपास रह गया. 2017 में कांग्रेस को 41 फीसदी तक वोट मिले थे. बल्कि गुजरात चुनाव के इतिहास में कांग्रेस इतनी कमजोर कभी नहीं हुई थी. पीएम नरेंद्र मोदी ने 31 जनसभाओं को संबोधित किया. कई रोड शो किए. अमित शाह ने खुद सारा प्रबंधन संभाल रखा था. भाजपा शासित दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री भी वहां पर प्रचार करने पहुंचे थे.
पंजाब में आप की जीतअपने आप में ऐतिहासिक मानी जाएगी. पार्टी को 117 में से 92 सीटें मिलीं. पंजाब के पुनर्गठन (1966) के बाद राज्य में यदि किसी एक पार्टी को सर्वाधिक सीटें मिली, तो इस चुनाव में आप को. पार्टी ने इतनी तेजी से वहां पर अपना प्रसार किया कि किसी को भी इस परिणाम का आभास नहीं था. लंबे समय से राज्य में राजनीतिक वजूद रखने वाली कांग्रेस धाराशायी हो गई. सिख राजनीति से जन्म लेने वाली पार्टी अकाली दल भी ध्वस्त हो गई. पार्टी प्रमुख सुखबीर बादल भी अपनी सीट नहीं बचा सके. भाजपा तो वहां पर पहले से ही कोई फैक्टर नहीं था. आप ने पहली बार दिल्ली के बाहर जाकर सफलता के झंडे गाड़े. चुनाव से ठीक पहले लगातार 18 दिनों तक पंजाब में रहे पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली मॉडल का खूब प्रचार किया. उन्होंने स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने का वादा किया. पंजाबियों का भरपूर विश्वास हासिल किया. चुनाव से ठीक पहले कुमार विश्वास ने केजरीवाल पर खालिस्तानी प्रकरण को लेकर निशाना भी साधा. पर इसका कोई असर नहीं हुआ. कांग्रेस ने चन्नी को सीएम बनाया था. उसे उम्मीद थी कि दलित उनके साथ होंगे. कांग्रेस के दिग्गज नेता अमरिंदर सिंह भाजपा में शामिल हो गए. उसका भी असर भाजपा पर नहीं पड़ा. पार्टी को मात्र दो सीटें मिलीं. अकाली दल को तीन, और कांग्रेस को 18 सीटे मिलीं.
गहलोत-पायलट प्रकरण- नेताओं के बीच अंदरूनी मतभेद तो हरेक पार्टी में होती है. लेकिन कांग्रेस के अंदर अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच बिना कहे ही जो कुछ हुआ, उससे कांग्रेस चिंतित अवश्य है. इस साल यह प्रमुख सुर्खियों में से एक है. यहां तक कि कांग्रेस की 'भारत जोड़ो यात्रा' के दौरान भी पार्टी लगातार यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि कोई खेमेबाजी नहीं है. कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि मतभेद हैं, लेकिन विचारों की भिन्नता नहीं है. अशोक गहलोत ने जब एक टीवी चैनल को दिए गए इंटरव्यू में सचिन पायलट के लिए 'गद्दार' जैसे शब्दों का प्रयोग किया, और उसके बाद जब राहुल गांधी ने यह कह दिया कि दोनों नेता हमारे लिए अपरिहार्य हैं, तब गहलोत ने अपना बयान बदल लिया. इससे पहले पार्टी अध्यक्ष के चुनाव के दौरान भी खूब ड्रामा हुआ. जिस दिन राजस्थान के विधायकों के साथ कांग्रेस पर्यवेक्षकों की बैठक होनी थी, उस दिन विधायक उनसे मिलने ही नहीं आए. उलटे कांग्रेस के 82 विधायकों ने विधानसभा स्पीकर सीपी जोशी के सामने इस्तीफा पेश करने का दावा कर दिया. ये सभी विधायक गहलोत समर्थक बताए जा रहे थे. गहलोत से जब इस बाबत पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि यह सब उनके बस में नहीं है. कांग्रेस विधायक प्रताप सिंह खाचरियावास ने कहा कि 10-15 विधायकों की सुनवाई हो रही है. जबकि अन्य विधायकों की उपेक्षा हो रही है. पार्टी हमारी नहीं सुनती. निश्चित तौर पर उनका इशारा सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों की ओर था. इन सारे प्रकरण से आलाकमान नाराज हो गया. गहलोत दिल्ली आए. राजस्थान में जो कुछ हुआ, उसके लिए उन्होंने खेद व्यक्त किया. 29 सितंबर को उन्होंने सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान कर दिया.
महाराष्ट्र प्रकरण- इस साल उद्धव ठाकरे की सरकार भी चली गई. राज्य के राजनीतिक हालात ऐसे बने, कि उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. उनकी पार्टी शिवसेना में बगावत हो गई. पार्टी के सिंबल को लेकर राजनीतिक लड़ाई जारी है. मामला चुनाव आयोग के पास है. एकनाथ शिंदे ने 45 विधायकों के साथ बगावत कर दी. वे पहले गुजरात गए, उसके बाद असम गए. बाद में जब उद्धव ने इस्तीफा दिया, तो उनके समर्थक विधायक मुंबई आए. जब यह तय हो चुका था कि सीएम देवेंद्र फडणवीस बनेंगे, तभी यह घोषणा की गई कि सीएम एकनाथ शिंदे होंगे. फडणवीस ने पहले मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होने का फैसला किया, पर बाद में आलाकमान के आदेश पर डिप्टी सीएम बनने के लिए तैयार हो गए. अभी भी उद्धव ठाकरे गुट और एकनाथ शिंदे गुट के बीच बयानबाजी जारी है. यहां पर संजय राउत का भी जिक्र जरूरी है. बगावत करने वाले विधायकों ने दावा किया कि संजय राउत की वजह से विधायकों में अंसतोष उभरे. उन्होंने यह भी कहा कि उद्धव ठाकरे एनसीपी की ज्यादा सुनते हैं, और वहां पर शरद पवार की अधिक चलती है, जबकि हमलोग से ठाकरे मिलते भी नहीं हैं.