किन्नौर :किन्नौर जिला आज हर क्षेत्र में प्रगति की राह पर है. चाहे विकास की दृष्टि से हो या यहां की संस्कृति की बात हो. वैज्ञानिक दृष्टि से तो किन्नौर ने आजादी के बाद काफी तरक्की कर ली है, लेकिन यहां प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं (incidents of natural disasters) जिस प्रकार से बढ़ रही है वह पहले इतने बड़े स्तर पर नहीं होती थी. आज लैंडस्लाइड, चट्टानों का खिसकना इत्यादि घटनाएं किन्नौर के लोगों को प्रभावित कर रही है और इन सब घटनाओं का सामना करना किसी चुनौती से कम नहीं है.
किन्नौर जिला सैकड़ों वर्ष पूर्व से ही आपदाओं (Disaster) से निपटने के लिए कई पारंपरिक व वैज्ञानिक तरीके (Traditional and Scientific Methods) अपनाता रहा है. यहां की सर्दियां जो यहां के लिए छह माह की सबसे बड़ी आपदाओं जैसी परिस्थितियां पैदा कर देती हैं. बर्फबारी में जिले के कई दुर्गम क्षेत्रों में सड़क मार्ग बंद हो जाते हैं. कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां महीनों भर बिजली गुल हो जाती है, पीने के पानी की समस्या बढ़ जाती है. ऐसे में यहां के लोग इन आपदाओं से निपटने के लिए अपने पारम्परिक तौर तरीकों से अपना संरक्षण करने में हमेशा से सक्षम रहे हैं.
जिला किन्नौर के लोग बर्फबारी से पूर्व ही करीब छह माह तक का राशन लकड़ी के घर (wooden house) यानी 'उर्च' में स्टोर कर देते हैं ताकि बर्फबारी के दौरान ऐसी कोई भी चीज जिसकी उन्हें जरूरत हो वह सब घर के अंदर ही मिल सके. इतना ही नहीं चावल और आटा के अलावा यहां के लोग चीनी, मसाले, खाने के तेल, साबुन, पेस्ट, इत्यादि का भी स्टॉक रखते हैं ताकि उन्हें किसी प्रकार की परेशानी न उठानी पड़े. 'उर्च' को लकड़ी से बनाया जाता है. इसे हमेशा घर से करीब 100 मीटर की दूरी पर ही तैयार किया जाता है.
'उर्च' की दीवारों को देवदार-अखरोट की लकड़ी से तैयार किया जाता है. इसके अंदर 8 से 10 छोटे-छोटे संदूक के आकार के डब्बे होते हैं. इन्हीं डब्बों के अंदर चावल, आटा, दालें, चीनी के साथ-साथ हर दूसरी वो चीज रखी जाती है जो किचन में पूरा साल इस्तेमाल होती है. इसके अलावा इसमे सेब, सूखे अंगूर, अखरोट,चिलगोजा, मेवे रखे जाते हैं. 'उर्च' के अंदर रखा सामान 2 से 3 साल तक बिल्कुल खराब नहीं होता. ना ही इसके अंदर रखे आनाज में नमी और ना ही कीड़े लगते हैं.