हैदराबाद :विपक्षी एकजुटता की मेल-मुलाकातों की खबरों के बीच दो घटना हुई. पहला, रविवार को बिहार के सीएम नीतीश कुमार ( Nitish Kumar) और जद (यू) नेता के सी त्यागी ( JD-U leader K C Tyagi) ने रविवार को इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) अध्यक्ष ओमप्रकाश चौटाला से गुरुग्राम में मुलाकात की. इसके बाद जेडी (यू) के नेता उपेंद्र कुशवाहा ने सीएम नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री की योग्यता वाला (PM Material) बताया. इसके अलावा राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने सोमवार को समाजवादी पार्टी (सपा) के पूर्व अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव से मुलाकात की.
मुलाकातों का यह दौर ऐसे वक्त में आया है कि जब इनेलो के प्रधान ओमप्रकाश चौटाला 'तीसरे मोर्चे (third front)' के गठन की वकालत कर रहे हैं. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने कहा था कि वह 25 सितंबर को देवीलाल की जयंती से पहले विपक्ष के नेताओं से मिलेंगे और उनसे एक मंच पर आने का अपील करेंगे. उनकी लिस्ट में वह सभी दल हैं, जो 1989 के तीसरे मोर्चे के घटक थे.
रविवार को नीतीश कुमार ने ओमप्रकाश चौटाला से मुलाकात की
फिर चर्चा में आया तीसरा मोर्चा :ओमप्रकाश चौटाला से पहले 'तीसरे मोर्चे' की बात जून में भी हुई थी. 22 जून को राष्ट्र मंच के संस्थापक यशवंत सिन्हा (Yashwant Sinha) ने शरद पवार (Sharad Pawar) के दिल्ली आवास पर राष्ट्रमंच के बैनर तले एक मीटिंग थी, जिसमें शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, सीपीआई (CPI), सीपीएम, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी के नेताओं के अलावा राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी भी शामिल थे. कभी बीजेपी नेता रहे यशवंत सिन्हा अब टीएमसी के उपाध्यक्ष हैं.
इस मीटिंग के बाद यह कयास लगाए जा रहे थे कि क्या इसका मकसद 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेसी मोर्चा यानी तीसरा मोर्चा (Third front) बनाना है. हालांकि यशवंत सिन्हा ने इससे इनकार किया. उनका दावा था कि मीटिंग में देश के मुद्दों पर चर्चा हुई थी. दूसरी तरफ पॉलिटिकल एक्सपर्ट मानते हैं कि बंगाल में लगातार तीसरी जीत से उत्साहित तृणमूल कांग्रेस ने विपक्ष को लामबंद करने के लिए राष्ट्रमंच का बैनर बनाया है. यह बंगाल चुनाव के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के दिमाग की उपज है.
सर्वे में तो अभी नरेंद्र मोदी ही आगे : जून में प्रकाशित द प्रिंट के सर्वे में 2024 के प्रधानमंत्री के लिए सबसे अधिक वोट नरेद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने (32.8 पर्सेंट) बटोरे. 17.2 पर्सेंट वोट के साथ राहुल गांधी दूसरे नंबर के पसंदीदा कैंडिडेट बने. पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी को 7 पर्सेंट लोगों ने बतौर पीएम पसंद किया. 6.1 पर्सेंट लोगों ने योगी आदित्यनाथ के पक्ष में सहमति दी. इसके बाद के सभी संभावित उम्मीदवार एम के स्टालिन , अखिलेश यादव, नीतीश कुमार (1.4 पर्सेंट), शरद पवार, अशोक गहलोत, उद्भव ठाकरे, पी. विजयन इस सर्वे में काफी पिछड़ते दिखे. इन नेताओं की फेहरिश्त में कोई ऐसा उम्मीदवार नहीं सामने आया, जो तीसरे मोर्चे के नेतृत्व के लिए सर्वमान्य पसंद बने.
1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने वामपंथी दलों और भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई थी
दो बार हुआ संयुक्त मोर्चे का प्रयोग : इस चर्चा को आगे बढाने से पहले यह जान लें कि तीसरा मोर्चा क्या है? यह उन क्षेत्रीय दलों का गठबंधन है, जो केंद्र में अकेले सत्ता में तो नहीं आ सकते मगर राष्ट्रीय राजनीति में किसी को सिंहासन तक पहुंचाने की चाहत रखते हैं. अभी तक तीसरे मोर्चे (third front in india) का प्रयोग 1989 और 1996 में हो चुका है. मगर दोनों बार ऐसे मोर्चों को सरकार बनाने के लिए राष्ट्रीय दलों की मदद लेनी पड़ी है. 1995 तक केंद्रीय राजनीति में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) का भी अस्तित्व नहीं था.
पहली बार जनमोर्चा के नाम पर एकजुट हुए थे गैर कांग्रेसी : 1986 में कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार पर बोफोर्स तोप की खरीदारी में भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. 1989 के लोकसभा चुनाव में बोफोर्स घोटाला सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया था. चुनाव से पहले11 अक्टूबर, 1988 को जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) के विलय से जनता दल की स्थापना हुई. जनता दल ने डीएमके, नैशनल कॉन्फ्रेंस, तेलगू देशम पार्टी और असम गण परिषद के साथ चुनावी समझौते किए और जनमोर्चा का गठन किया. राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनमोर्चा की अगुवाई की.
टिकाऊ नहीं रही तीसरे मोर्चे की सरकार :2 दिसंबर1989 को इस जनमोर्चे ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई थी. भारतीय जनता पार्टी के अलावा माकपा और भाकपा ने इस सरकार का समर्थन किया था. मगर यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी. भाजपा ने बिहार में राम रथयात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद समर्थन वापस ले लिया. 10 नवंबर 1990 को वी पी सिंह की सरकार चली गई.
संयुक्त मोर्चे की सरकार में दो प्रधानमंत्री बने. एच डी देवगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल. संयुक्त मोर्चे के गठन में हरकिशन सिंह सुरजीत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यह कांग्रेस समर्थित सरकार थी
दूसरा प्रयोग भी लंबा नहीं रहा :1996 में भी अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनों की सरकार गई, तब सीपीआई ने कई दलों को जोड़कर तीसरे मोर्चे का गठन किया. इस बार कांग्रेस ने तीसरे मोर्चे का समर्थन किया. पहले एच डी देवगौड़ा, फिर इंद्र कुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री बने. मगर तीसरे मोर्चे की दोनों सरकारें कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के कारण गिर गईं. इसके बाद चुनावों में तीसरे मोर्चे के घटक एनडीए और यूपीए का हिस्सा बनते रहे. 1998 के बाद से तीसरा मोर्चा भारत की राजनीति से लापता है.
अभी तो तीसरे मोर्चे में कई पेंच हैं :भारतीय राजनीति के संभावित तीसरे मोर्चे (third front politics in india) की अगुवाई करने वालों को कई समीकरण सुलझाने होंगे. तीसरे मोर्चे का गठन तभी हो सकता है, जब क्षेत्रीय दल एनडीए या यूपीए का दामन छोड़ दे. क्या नीतीश कुमार बिहार में बीजेपी का साथ छोड़ेंगे. क्या बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड दोबारा एक बैनर के नीचे आएंगे. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में से कौन संयुक्त मोर्चे में शामिल होगा. अगर सब साथ आ भी गए तो नरेंद्र मोदी के सामने कौन सा चेहरा प्रधानमंत्री के लिए आएगा. फिलहाल यह काल्पनिक बातें हैं मगर तीसरे मोर्चे के लिए यह सवाल खड़े ही रहेंगे.
राष्ट्रमंच क्या थर्ड फ्रंट में बदल पाएगा? :इसी तरह विपक्ष को एकजुट करने की चुनौती यशवंत सिन्हा के यशवंत सिन्हा के राष्ट्रमंच के सामने भी है. अभी तक जारी बयानों से लगता है कि मंच का फोकस नरेंद्र मोदी और बीजेपी के लड़ने के लिए सशक्त विपक्ष को खड़ा करना है. उन्हें भी एक नया मोर्चा बनाने के लिए एनडीए के सहयोगियों की आवश्यकता होगी. उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, तेलंगाना के सीएम सी. चंद्रशेखर राव और आंध्र के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी के रिश्ते मोदी सरकार से खराब नहीं हैं. इन नेताओं को शामिल किए बगैर थर्ड फ्रंट की कल्पना नहीं की जा सकती है. क्षेत्रीय स्तर पर ये काफी मजबूत हैं, तो क्या ये नेता ऐसे गठबंधन का हिस्सा बनेंगे.
प्रशांत किशोर कभी नीतीश कुमार के करीबियों में शुमार थे.
क्या नीतीश को साथ लेना चाहेंगे पीके : प्रशांत किशोर जेडी-यू के उपाध्यक्ष रहे हैं. माना यह जाता है कि उनकी रणनीति के कारण ही 2015 में नीतीश कुमार सरकार जीत दर्ज की थी. मगर जिस तरह प्रशांत किशोर ने जेडी-यू छोड़ा था, उससे यह नहीं लगता कि वह विपक्ष के किसी संभावित गठबंधन में नीतीश कुमार को आमंत्रित करेंगे. ममता बनर्जी का नेतृत्व सर्वमान्य बनाना भी आसान नहीं होगा. अगर चुनाव से पहले वह कांग्रेस को भी मंच में शामिल कर लेते हैं तो अगला चुनाव फिर एनडीए बनाम यूपीए हो जाएगा. मंच को भी मोदी से मुकाबले के लिए नेता को चुनना होगा, जो आसान नहीं है.
कांग्रेस के बिना जीत के लिए आश्वस्त नहीं कई दल :एक्सपर्ट मानते हैं कि आज के राजनीतिक हालात में 2024 में विपक्ष कांग्रेस के बिना सशक्त नहीं हो सकता है. शिवसेना के नेता और राज्यसभा सांसद संजय राउत ने कहा है कि कांग्रेस को छोड़कर विपक्ष का कोई मोर्चा सफल नहीं होगा. आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव भी मानते हैं कि कांग्रेस के साथ ही विपक्ष मजबूत विकल्प खड़ा कर सकता है. यानी अभी तक के घटनाक्रम से ऐसा लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए और यूपीए में ही टक्कर होगी. तीसरे मोर्चे के गठन के रास्ते अभी धुंधले ही हैं.