हनुमानगढ़ : पानी की कीमत भला मरुधरा के लोगों से बेहतर और कौन समझ सकता है. लेकिन किसानों के नाम पर वोटों की फसल काटने वाले सियासी लोग इसका महत्व नहीं समझ पा रहे. पानी की किल्लत झेल रहे किसान तब खुद को ठगा महसूस करते हैं, जब सियासतदान वोट लेने के बाद भी उनकी मांगों को पूरा नहीं करते. यही वजह है कि बीते 90 साल से राजस्थान के किसानों के हक के पानी का फायदा पंजाब के किसान ले रहे हैं.
राजस्थान में पानी की समस्याओं को लेकर किसान व आम आदमी आए दिन धरना-प्रदर्शन करने को मजबूर है. वहीं, पंजाब पिछले 9 दशक से मनमानी करते हुए राजस्थान के हक के पानी पर कुंडली मार कर बैठा है. किसानों का कहना है कि एक तरफ वह पानी की बूंद-बूंद को तरसते हैं. वहीं राजस्थान के जनप्रतिनिधियों की अनदेखी के चलते पंजाब अपनी मनमानी से हमारे पानी पर हुकूमत कर रहा है. जिसके चलते 70 प्रतिशत खेती पर आश्रित व्यवस्था को इसका भारी नुकसान झेलना पड़ रहा है. हनुमानगढ़ समेत 10 जिले पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं.
पानी पर हुआ समझौता निष्प्रभावी
पहला अंतरराज्यीय जल समझौता 29 जनवरी 1955 को हुआ. इसमें राजस्थान प्रदेश को अपने हिस्से का पानी 8.6 एमएएफ मिलना तय हुआ था. फिर 13 जनवरी 1959 को राजस्थान और पंजाब के बीच सतलज नदी के पानी को लेकर समझौता हुआ था. इसके बाद भी राजस्थान को तय हिस्से का पूरा पानी नहीं मिला. 31 दिसंबर 1981 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अध्यक्षता में रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी को लेकर हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली के मुख्यमंत्रियों के बीच तीसरी बार समझौता हुआ. जिसमें पंजाब को 42.20 लाख एकड़ फीट, राजस्थान को 36, हरियाणा को 35, जम्मू-कश्मीर को 6.50 और दिल्ली को दो लाख फीट एकड़ पानी आवंटित कर दिया गया.
पंजाब ने कैसे तोड़ा यह समझौता
1981 के समझौते के बाद पंजाब के हिस्से में अधिक पानी आया. लेकिन जिस समय समझौता हुआ उस वक्त प्रदेश में नहरों की क्षमता व स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि नहरों में निर्धारित हिस्से के अनुसार पानी छोड़ा जा सके. जिसके बाद राजस्थान और पंजाब के एक आपसी समझौते के तहत यह तय किया गया कि जब तक राजस्थान की नहर पक्की नहीं हो जाती तब तक 0.6 एमएएफ पानी का उपयोग पंजाब कर सकता है. कुछ समय बाद नहरों को पक्का करने का कार्य पूरा हो गया, लेकिन पंजाब ने पानी देने से इनकार कर दिया.