रायपुर: देश इस साल आजादी का 75वां साल मना रहा है. इस मौके पर अमृत महोत्सव का आयोजन भी किया जा रहा है. बता दें, आजादी की लड़ाई में छत्तीसगढ़ का भी अहम योगदान है. देश को आजादी दिलाने में कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए. देश को स्वतंत्र कराने में छत्तीसगढ़ के योगदान पर आइये डालते हैं एक नजर...
यह अठारहगढ़ के जल-जंगल और जमीन के लिए ब्रितानिया हुकूमत से संघर्ष की कहानी है. इस कहानी के मुख्य नायकों में शामिल हैं. पृथ्वीराज चौहान के वंशज और संबलपुर के राजा सुरेंद्र साय और सोनाखान के जमींदार वीर नारायण सिंह. अठारहगढ़ का भौगोलिक इलाका आज के नक्शे में पूर्वी छत्तीसगढ़ और पश्चिम ओडिशा में बंट गया है. 1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने 1858 के मध्य तक कुचल दिया था, लेकिन अठारहगढ़ में आदिवासियों ने 1862 तक अंग्रेजों के पसीने छुड़ाए थे. तत्कालीन अठारहगढ़ में मुख्य रूप से गोंड राजा और जमींदारों का राज था. कुछ जमींदार गोंड और ज्यादातर बिंझवार थे. अठारहगढ़ के निवासियों के लिए वनोपज का खास महत्व था. यहां की जमीन भी बहुत उपजाऊ थी.
इतिहासकार परिवेश मिश्रा बताते हैं कि यह इलाका बहुत उपजाऊ था. पहाड़ हैं, जंगल हैं, पानी बहुत गिरता था. नए-नए जंगल क्लियर होते थे. वहां कपास भी हो जाता था. यहां अर्जुन के पेड़ थे जिसके कारण टर्सर का उत्पादन होता था. यहां का इलाका कपड़ा बुनकरी के लिए खासकर संबलपुर बहुत मशहूर था.
1757 में प्लासी की लड़ाई के कुछ सालों बाद अंग्रेजों को लगान वसूली का अधिकार मिल गया. 1818 आते तक अंग्रेज भारत के इस इलाके के चौधरी बन चुके थे. अंग्रेजों की नजर अठारहगढ़ पर भी थी. उन्होंने अठारहगढ़ के अर्थतंत्र पर कब्जा करने के लिए दांव चला. संबलपुर की राजगद्दी पर सुरेन्द्र साय की जगह स्वर्गीय राजा महाराज साय की पत्नी रानी मोहन कुमारी को राजगद्दी पर बिठा दिया. अंग्रेजों के इस कदम का अठारहगढ़ के राजाओं और जमींदारों ने विरोध किया लेकिन सुरेन्द्र साय, उनके भाई उदंत सिंह और चाचा बलराम सिंह को गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में डाल दिया गया.
परिवेश मिश्रा बताते हैं कि अंग्रेज चाहते थे कि कोई ऐसा हो जो उनकी कठपुतली की तरह काम कर सके. अकुलाहट, परेशानी से नाराजगी बढ़ी, विद्रोह शुरू हो गया. समझौतों का कोई अनुपालन नहीं हुआ. सुरेंद्र साय और उनके परिजनों की गिरफ्तारी के बाद भी विद्रोह जारी रहा. सोनाखान के बिंझवार जमींदार नारायण सिंह ने साल 1856 में भीषण अकाल पड़ने पर गोदाम के ताले तोड़कर ग्रामीणों में अनाज बंटवा दिया. बौखलाए अंग्रेजों ने नारायण सिंह को गिरफ्तार कर रायपुर जेल में डाल दिया. लेकिन कुछ दिन में ही नारायण सिंह रायपुर सेन्ट्रल जेल की दीवार के नीचे से सुरंग बनाकर भागने में सफल हो गए. 30 जुलाई 1857 को भारतीय सैनिकों ने हजारीबाग जेल का दरवाजा तोड़कर सुरेन्द्र साय और साथियों को भी रिहा करा लिया. सुरेन्द्र साय और उनके साथियों को सारंगढ़ के राजा संग्राम सिंह के महल में पनाह मिली.