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छत्तीसगढ़: ब्रितानिया हुकूमत से अठारहगढ़ के जल-जंगल और जमीन के लिए संघर्ष की कहानी

1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने 1858 के मध्य तक कुचल दिया था, लेकिन अठारहगढ़ में आदिवासियों ने 1862 तक अंग्रेजों के पसीने छुड़ाए थे. तत्कालीन अठारहगढ़ में मुख्य रूप से गोंड राजा और जमींदारों का राज था.

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Published : Sep 5, 2021, 5:04 AM IST

अठारहगढ़ के जल-जंगल और जमीन के लिए ब्रितानिया हुकूमत से संघर्ष की कहानी
अठारहगढ़ के जल-जंगल और जमीन के लिए ब्रितानिया हुकूमत से संघर्ष की कहानी

रायपुर: देश इस साल आजादी का 75वां साल मना रहा है. इस मौके पर अमृत महोत्सव का आयोजन भी किया जा रहा है. बता दें, आजादी की लड़ाई में छत्तीसगढ़ का भी अहम योगदान है. देश को आजादी दिलाने में कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए. देश को स्वतंत्र कराने में छत्तीसगढ़ के योगदान पर आइये डालते हैं एक नजर...

यह अठारहगढ़ के जल-जंगल और जमीन के लिए ब्रितानिया हुकूमत से संघर्ष की कहानी है. इस कहानी के मुख्य नायकों में शामिल हैं. पृथ्वीराज चौहान के वंशज और संबलपुर के राजा सुरेंद्र साय और सोनाखान के जमींदार वीर नारायण सिंह. अठारहगढ़ का भौगोलिक इलाका आज के नक्शे में पूर्वी छत्तीसगढ़ और पश्चिम ओडिशा में बंट गया है. 1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने 1858 के मध्य तक कुचल दिया था, लेकिन अठारहगढ़ में आदिवासियों ने 1862 तक अंग्रेजों के पसीने छुड़ाए थे. तत्कालीन अठारहगढ़ में मुख्य रूप से गोंड राजा और जमींदारों का राज था. कुछ जमींदार गोंड और ज्यादातर बिंझवार थे. अठारहगढ़ के निवासियों के लिए वनोपज का खास महत्व था. यहां की जमीन भी बहुत उपजाऊ थी.

अठारहगढ़ के जल-जंगल और जमीन के लिए ब्रितानिया हुकूमत से संघर्ष की कहानी

इतिहासकार परिवेश मिश्रा बताते हैं कि यह इलाका बहुत उपजाऊ था. पहाड़ हैं, जंगल हैं, पानी बहुत गिरता था. नए-नए जंगल क्लियर होते थे. वहां कपास भी हो जाता था. यहां अर्जुन के पेड़ थे जिसके कारण टर्सर का उत्पादन होता था. यहां का इलाका कपड़ा बुनकरी के लिए खासकर संबलपुर बहुत मशहूर था.

1757 में प्लासी की लड़ाई के कुछ सालों बाद अंग्रेजों को लगान वसूली का अधिकार मिल गया. 1818 आते तक अंग्रेज भारत के इस इलाके के चौधरी बन चुके थे. अंग्रेजों की नजर अठारहगढ़ पर भी थी. उन्होंने अठारहगढ़ के अर्थतंत्र पर कब्जा करने के लिए दांव चला. संबलपुर की राजगद्दी पर सुरेन्द्र साय की जगह स्वर्गीय राजा महाराज साय की पत्नी रानी मोहन कुमारी को राजगद्दी पर बिठा दिया. अंग्रेजों के इस कदम का अठारहगढ़ के राजाओं और जमींदारों ने विरोध किया लेकिन सुरेन्द्र साय, उनके भाई उदंत सिंह और चाचा बलराम सिंह को गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में डाल दिया गया.

परिवेश मिश्रा बताते हैं कि अंग्रेज चाहते थे कि कोई ऐसा हो जो उनकी कठपुतली की तरह काम कर सके. अकुलाहट, परेशानी से नाराजगी बढ़ी, विद्रोह शुरू हो गया. समझौतों का कोई अनुपालन नहीं हुआ. सुरेंद्र साय और उनके परिजनों की गिरफ्तारी के बाद भी विद्रोह जारी रहा. सोनाखान के बिंझवार जमींदार नारायण सिंह ने साल 1856 में भीषण अकाल पड़ने पर गोदाम के ताले तोड़कर ग्रामीणों में अनाज बंटवा दिया. बौखलाए अंग्रेजों ने नारायण सिंह को गिरफ्तार कर रायपुर जेल में डाल दिया. लेकिन कुछ दिन में ही नारायण सिंह रायपुर सेन्ट्रल जेल की दीवार के नीचे से सुरंग बनाकर भागने में सफल हो गए. 30 जुलाई 1857 को भारतीय सैनिकों ने हजारीबाग जेल का दरवाजा तोड़कर सुरेन्द्र साय और साथियों को भी रिहा करा लिया. सुरेन्द्र साय और उनके साथियों को सारंगढ़ के राजा संग्राम सिंह के महल में पनाह मिली.

उन्होंने कहा कि 1857 में संबलपुर में उस समय रामगढ़ बटालियन थी और रायपुर में अंग्रेजों की थर्ड इंफेंट्री थी. रायपुर में सिपाहियों ने वीरनारायण की जंगल से भागने में मदद की. वहीं हजारीबाग में भी सुरेंद्र साय और उनके परिजन सिपाहियों की मदद से रिहा कराए गए. जेल से रिहाई के बाद अठारहगढ़ के राजा और जमींदारों ने उनकी मदद की. इसके बाद अंग्रेजों के साथ गोरिल्ला युद्ध शुरू हो गया.

सुरेन्द्र साय को पकड़ने में नाकाम रहे अंग्रेजों ने समझौता प्रस्ताव की कूटनीतिक चाल चली. सितम्बर 1861 में संबलपुर और कटक की जेलों में कैद विद्रोहियों को रिहा कर दिया गया. 22 नवंबर 1862 को गवर्नर जनरल एल्गिन ने लंदन स्थित ब्रिटिश सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को सूचना दी कि सुरेन्द्र साय ने समर्पण कर दिया है. इसके बाद अठारहगढ़ के राजा और जमींदार अंग्रेजों के वायदे पूरा होने का इंतजार करने लगे. लेकिन अंग्रेज बहाना करते रहे. कुछ समय बाद प्रशासनिक ढांचे में बदलाव कर अंग्रेजों ने अपने वायदों से पल्ला झाड़ लिया. इसके बाद सुरेन्द्र साय ने एक बार फिर सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई, लेकिन अंग्रेजों को इसकी भनक लग गई और सुरेन्द्र साय को गिरफ्तार कर मध्यप्रदेश के खंडवा के पास स्थित असीरगढ़ के किले में कैद कर दिया गया. 17 साल कैद में रहने के बाद यहीं इस वीर की मृत्यु हुई.

इतिहासकार परिवेश आगे कहते हैं कि उस असीरगढ़ के किले में रखा ताकि कोई उनतक आसानी से पहुंच ना पाए. उनको 20 साल की सज़ा दी गई लेकिन 19 साल सज़ा काटने के बाद जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई. इस तरह उन्होंने हजारीबाग में 17 साल और यहां 19 साल यानी 36 साल अंग्रेजों की जेल में बिताए थे. सुरेंद्र साय की तरह ही अंग्रेजों ने सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह को भी गिरफ्तार करने के लिए ग्रामीणों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया और बस्ती में आग तक लगा दी. अपनों पर जुल्म ढाता देख वीर नारायण सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया. 5 दिसम्बर 1857 को उन्हें रायपुर में डिप्टी कमिश्नर ईलियट के हवाले कर दिया गया. रायपुर में फर्जी आरोप लगाकर मुकदमे के ढोंग के बाद वीर नारायण सिंह को मृत्युदंड दिया गया.

जो इतिहास के जानकार हैं वो दो बातें कहते हैं. एक वर्जन के मुताबिक वीरनारायण को फांसी पर लटकाया गया था, लेकिन छत्तीसगढ़ में जिस वर्जन को लोग ज्यादा मानते हैं उसके मुताबिक वीर नारायण को तोप से बांधकर उड़ा दिया गया था ताकि लोग इस घटना से डरें और सबक लें.

ये थी कहानी जल-जंगल और जमीन के लिए अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष की कहानी. इतिहास के पन्नों में गुमनाम इन नायकों के बारे में आज की पीढ़ी भले बहुत कम जानती हो लेकिन कह सकते हैं कि इस भू-भाग के राजाओं और जमीदारों ने अंग्रेजों को अहसास दिला दिया था वे इतनी आसानी से अपनी आजादी किसी के हाथ गंवाने वाले नहीं हैं.

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