दिल्ली

delhi

निजीकरण और बाजारीकरण बढ़ाने वाला है आम बजट 2021: अंबरीष राय

By

Published : Feb 3, 2021, 7:54 PM IST

राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीष राय ने आम बजट 2021 पर निराशा जताई है. उन्होंने तमाम मुद्दों को उठाते हुए सरकार पर हमला बोला है.

right to education forum on education budget
राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीष राय ने आम बजट 2021 पर जताई निराशा

हैदराबाद :वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 फरवरी को आम बजट 2021 पेश किया. सोमवार को पेश हुए केंद्रीय बजट 2021-22 पर प्रतिक्रिया देते हुए राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीष राय ने कहा कि इस बजट ने एक बार फिर बेहद निराश किया है.

आम बजट 2021 पर टिप्पणी करते हुए अंबरीष राय ने कहा कि देश की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था पहले से ही कई चुनौतियों से जूझ रही थी. इस बीच कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी ने भी शिक्षा क्षेत्र पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला. ऐसे में जरूरी था कि सरकार शिक्षा के मद में सामान्य से अधिक और अतिरिक्त कोविड पैकेज की घोषणा की जाती. जिससे करोड़ों बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और जीवन के मूलभूत अधिकारों की रक्षा की जरूरतों को बल मिलता. हम हमेशा से मांग करते रहे हैं कि कुल बजट का दस फीसदी और सकल घरेलू उत्पाद का 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च किया जाये.

राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक ने बजट 2021 को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि इस बजट में विगत वर्ष के कुल शिक्षा बजट ₹ 99312 करोड़ के मुक़ाबले सिर्फ ₹ 93224 करोड़ आवंटित किए हैं. यह पिछले आवंटन की तुलना में ₹ 6088 करोड़ कम है. ये अजीब बात है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष 2021-22 में समग्र शिक्षा अभियान के लिए आवंटित बजट 31050 करोड़ है, जो 2019-20 के वास्तविक व्यय 32376.52 करोड़ से भी कम है. अगर हम पिछले वर्ष 2020-21 में राष्ट्रीय शिक्षा मिशन (समग्र शिक्षा अभियान और शिक्षक प्रशिक्षण एवं वयस्क शिक्षा) के तहत आवंटन को देखें तो 38860 करोड़ के मुकाबले इस बार महज 31300 करोड़ ही आवंटित किए गए हैं.

नई शिक्षा नीति में बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन के लिए लैंगिक समावेशी कोष (जेंडर इंक्लूसिव फंड) की बात की गई थी, जिसकी कोई चर्चा बजट में नहीं है, बल्कि माध्यमिक स्कूलों में पढ़नेवाली लड़कियों के लिए प्रोत्साहन के लिए राष्ट्रीय योजना (नेशनल स्कीम फॉर इनसेंटिव टू गर्ल्स फॉर सेकंडरी एजुकेशन) के तहत दी जानेवाली राशि पिछले साल के 110 करोड़ रुपये से घटाकर 1 करोड़ रुपये कर दी गई है.

राय ने निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि एक समावेशी सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को मजबूत करने के लिए आवंटन बढ़ाने के बजाय सरकार शिक्षा में निजीकरण और पीपीपी मॉडल का मार्ग प्रशस्त कर रही है. यह उपेक्षा बच्चों, विशेष रूप से गरीब, हाशिए पर रहने वाले समुदायों और लड़कियों के साथ-साथ भारत में आउट ऑफ स्कूल बच्चों की बढ़ती संख्या पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी. सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) 2030 के मुताबिक तय लक्ष्यों और हाल में ही आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 की सिफ़ारिशों के मद्देनजर पूर्व-प्राथमिक से उच्चतर माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा को सभी बच्चों तक पहुंचाने यानी सार्वभौमिक बनाने की प्रतिबद्धता तो इस आधे-अधूरे बजट की बुनियाद पर सिर्फ हवाई सपना ही बना रहेगा.

क्या थी अपेक्षा जो इस बजट में नहीं मिला

यदि सरकार वाकई सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मजबूत और पुनर्जीवित करने का इरादा रखती है, तो उसे पूर्व-प्राथमिक से कक्षा 12 (3-18 वर्ष) तक सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा के अधिकार कानून, 2009 के विस्तार के मद्देनजर पर्याप्त बजट आवंटन पर ज़ोर देना चाहिए था. देश के स्कूलों में 17.1 फीसदी शिक्षकों के पद खाली हैं (कुल स्वीकृत 61.8 लाख पदों में से 10.6 लाख पद वर्ष 2020-21 के शैक्षणिक साल में रिक्त रहे) जिन्हें तत्काल भरे जाने की जरूरत है.

यू डाइस 2016-17 के एक आंकड़े के मुताबिक 18% अध्यापक योग्यता के मामले में शिक्षा अधिकार क़ानून, 2009 के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं, जिनके प्रशिक्षण और नियमितीकरण का काम अभी अधूरा है. ऑनलाइन शिक्षा के कारण भी असमानता की एक बड़ी खाई पैदा हो गई है क्योंकि 80 प्रतिशत गांवों में रहने वाले तथा शहरों के गरीब बच्चे, जिनमें लड़कियों की संख्या बहुतायत है, कम्प्यूटर, लैपटॉप, स्मार्टफोन तथा उचित संसाधनों के अभाव के कारण शिक्षा के दायरे से बाहर होते जा रहे हैं.

कोरोना काल के बाद स्कूलों के खुलने की बात हो रही है और आशंका है कि 25 से 30 फीसदी बच्चे स्कूलों से ड्रॉप आउट हो जाएंगे। दूसरी तरफ, बच्चों को शिक्षा का बुनियादी हक दिलानेवाला शिक्षा अधिकार कानून 2009 11 साल गुजर जाने के बाद भी महज 12.7% स्कूलों में ही लागू किया जा सका है. अभी भी हमारे 52 से 54 फीसदी स्कूल बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं. जहां स्वच्छ पीने का पानी, हाथ धोने की सुविधा व प्रयोग में लाने लायक शौचालय नहीं है. इन तमाम दुश्वारियों से निपटने के लिए आर्थिक संसाधनों की पहले से भी ज्यादा जरूरत थी. इसमें कोई संदेह नहीं कि आर्थिक संसाधनों के बगैर न तो शिक्षा अधिकार कानून पूरी तरह लागू हो सकता है और न ही हाल में कैबिनेट द्वारा स्वीकार की गई नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का क्रियान्वयन हो सकता है, लेकिन सरकार अपने बजट अभिभाषण में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के के अनुरूप बनाए जाने वाले 15000 मॉडल विद्यालयों, 750 एकलव्य विद्यालयों और पीपीपी मॉडल में 100 सैनिक स्कूलों के खोले जाने का महज उल्लेख करके देश के करोड़ों–करोड़ बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेना चाहती है.

पढ़ें:राहुल गांधी बोले- किसानों को दबाना, धमकाना व मारना सरकार का काम नहीं

राइट टू एजुकेशन फोरम का मानना है कि यह बजट करोड़ों बच्चों के भविष्य को अंधकार में धकेलने, उच्च शिक्षा व्यवस्था की तर्ज पर स्कूली शिक्षा को भी निजी व कॉर्पोरेट घरानों के हाथों में सौंपने और देश के आम नागरिकों के बच्चों को दोयम दर्जे की शिक्षा तक सीमित रखने का बजट है. यह बजट सार्वजनिक शिक्षा और बाल अधिकारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल खड़े करती है.

ABOUT THE AUTHOR

...view details