नई दिल्ली : मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों के विरोध में पूरे एक साल तक किसान आंदोलन चला. आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैसाखी के दिन इन कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया. कानूनों का रद्द होना क्या किसानों के हित में रहा या फिर यह एक राजनैतिक फैसला था, यह बहस और विवाद का विषय है. लेकिन इनका बजट पर कितना असर पड़ेगा, इसको लेकर चर्चा जरूर गर्म है. निश्चित तौर पर सरकार चाहेगी कि वे किसानों की नाराजगी दूर करें. संयोग ये है कि अभी पांच राज्यों में चुनाव भी हैं. इसलिए कृषि क्षेत्र सरकार से बड़ी उम्मीदें कर रहा है. किसानों के लिए बजट में क्या कुछ होगा, अभी चर्चा के केंद्र में यही विषय है. (impact of farm movement agriculture sector on budget).
मोदी सरकार ने कई मौकों पर अपने उस वादे को दोहराया था कि वे किसानों की आय दोगुनी करने के लिए कृत संकल्प हैं. उनके अनुसार इसके लिए कृषि क्षेत्र में सुधार आवश्यक है, और इसके लिए इन तीनों कानूनों को लागू करना उस दिशा में बढ़ाया गया एक कदम है. पर, वैसा संभव नहीं हुआ. तीनों कृषि कानूनों पर सरकार ने अपने कदम वापस खींच लिए. अब आगे क्या होगा. क्या सरकार का अब भी यही संकल्प है कि किसानों की आमदनी दोगुनी करेंगे. जाहिर है, सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया है. क्या बजट में कृषि क्षेत्र को लेकर सरकार कुछ बड़े फैसले ले सकती है. क्या किसानों के लिए कुछ अच्छी खबर आ सकती है. वह भी ऐसे समय में जबकि भाजपा यूपी जैसे बड़े राज्य में ठीक चुनाव के वक्त (खासकर प. यूपी में) किसानों के कोप का भाजन बनी हुई है.
यहां आपको बता दें कि कृषि संकट की वैसे तो कई वजहें हैं, लेकिन मोटे तौर पर तीन महत्वपूर्ण विषय हैं. पहला विषय है किसानों की लगातार घटती आमदनी. दूसरा विषय है बढ़ता हुआ कर्ज और तीसरा मुद्दा है, क्या किसान पारंपरिक कृषि पद्धति को छोड़ने के लिए तैयार होंगे या नहीं. यह मुद्दा इसलिए जरूरी है क्योंकि सरकार कई मौकों पर कह चुकी है कि किसानों को गेंहू-धान को छोड़कर अन्य फसलों की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. ऐसा होगा तभी आमदनी भी बढ़ेगी और भूजल की भी कम खपत होगी.
पर, किसानों का एक धड़ा (मुख्यतः पंजाब से) कृषि सुधार के लिए तैयार नहीं है. दूसरा धड़ा (महाराष्ट्र का शेतकारी) हर हाल में चाहता है कि कृषि सुधार हो. कृषि विशेषज्ञ भी मानते हैं कि सुधार आवश्यक है. अभी हाल ही में एक आंकड़ा जारी हुआ था. इसके अनुसार पिछले साल पूरे देश में महाराष्ट्र में सबसे अधिक किसानों ने आत्महत्या की है. यानी पक्ष हो या विपक्ष, राजनीतिक ताने मारना तो एक बात है, समाधान किसी के पास नहीं है. हर सरकार में स्थिति एक जैसी. जाहिर है समाधान रातों रात तो नहीं मिल सकता है. पर हर बजट में कृषि क्षेत्र या किसानों की उम्मीदें टिकी होती हैं. किसान आंदोलन की प्रमुख मांगों में से एक था- एमएसपी को कानूनी समर्थन देना. सरकार ने इस पर कमेटी का गठन किया है. इसी तरह से पीडीएस को लेकर भी लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं. कृषि सुधारों या कहें बाजार समर्थकों का कहना है कि यह दोनों व्यवस्था अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ता है. क्या बजट में इस पर कुछ निर्णय हो सकता है, चर्चाएं तो जरूर जोर पकड़ रहीं हैं.
बजट से किसानों को उम्मीदें
कृषि विशेषज्ञों के अनुसार कृषि उत्पादों का निर्यात कैसे बढ़े, सरकार इस बाबत क्या सहयोग करती है और बजट में इसके लिए क्या प्रावधान होंगे, इस पर सभी की नजरें बनी रहेंगी. कृषि उत्पादों को बाजारों तक पहुंचाने के लिए सरकार ने ई-नाम से एक पोर्टल बनाया है. इसके जरिए किसान फायदा भी उठा रहे हैं. लेकिन किसान चाहते हैं कि इसका दायरा और अधिक बढ़ाया जाए. साथ ही गांवों तक बाजार का विस्तार कैसे हो, या उन तक बाजार कैसे पहुंचे, और उनके उत्पादों को कितनी शीघ्रता से बाजार तक पहुंचाया जा सकता है, इस पर उम्मीद की जा रही है. शायद बजट इस पर कुछ कह सकता है.