नई दिल्ली : पूरे दिन टीवी में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरफ से कोरोना से संबंधित विज्ञापन हर 15 मिनट के अंतराल पर लगभग दिखाए जा रहे हैं.
सूत्रों की माने तो इस पर एक दिन में कई करोड़ का खर्च आ रहा है. इस बार के बजट में भी केजरीवाल सरकार ने लगभग 550 करोड़ रुपये मात्र विज्ञापन के मद में रखे हैं. अगर इस विज्ञापन की बजाए केजरीवाल इतने पैसे दिल्ली के मजदूरों को पलायन से रोकने में लगाते उनके लिए कोई ठोस योजना या फिर उनके खाते में पैसे डाले जाते तो शायद एक बार फिर से मजदूरों को पलायन का दंश नहीं झेलना पड़ता.
यह कहानी मात्र दिल्ली की नहीं बल्कि बाकी राज्यों में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है. बात करें मध्य प्रदेश की वहां भी लाखों रुपए विज्ञापन पर खर्च हो रहे हैं लेकिन कोरोना के बढ़ते मामलों को लेकर शुरुआती दौर में ही पलायन कर रहे मजदूरों को रोकने के लिए कोई भी ठोस योजना नहीं बनाई गई.
महाराष्ट्र की यदि बात करें तो मजदूरों के पलायन की संख्या आंशिक लॉकडाउन की घोषणा से पहले ही शुरू हो चुकी थी, आंकड़े का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पश्चिम भारत से उत्तर भारत के लिए 45 विशेष ट्रेनें चलाई जा रही हैं जिसमें 80 हजार के लगभग मजदूरों ने मार्च से अप्रैल के मध्य में पश्चिम भारत में मुख्य तौर पर महाराष्ट्र से अलग-अलग शहरों से उत्तर भारत के अलग-अलग शहरों पर पलायन किया.
कमोबेश यही हालात गुजरात के भी अलग-अलग शहरों से मजदूरों के लौटने के हैं.
मजबूर मजदूरों के लिए नहीं बनी कोई नीति
अलग-अलग राज्यों में सत्ताधारी पार्टी अलग-अलग लेकिन तस्वीरें हर जगह एक जैसी. हर जगह से बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन. 2020 में इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों के पलायन पर केंद्र सरकार ने यह सफाई दी थी कि कोरोना से बीमारी के लिए पहले से कोई भी सरकार लड़ने को तैयार नहीं थी और इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों के पलायन को आगे कभी नहीं होने दिया जाएगा.
एक साल बीत जाने के बाद फिर वही नजारा सड़कों पर नजर आ रहा है ,ना तो इसके लिए राज्य सरकार ने कोई ठोस नीतियां तैयार कीं और ना ही केंद्र ने. एक साल में असंगठित मजदूरों के लिए ऐसे आपातकाल या महामारी में बेरोजगारी का दंश झेल रहे और पलायन को मजबूर मजदूरों के लिए कोई नीति या फंड तैयार नही किया गया.