काशी में शुरू हुई गणेशोत्सव की धूम. वाराणसी: भगवान भोलेनाथ की नगरी काशी में जहां हर दिन, हर पल हर हर महादेव का जय घोष सुनने को मिलता है, लेकिन कुछ समय ऐसा होता है जब भगवान भोलेनाथ के नाम के साथ उनके पुत्र गणपति का भी जय जयकार होती है और यह मौका होता है काशी में गणेश उत्सव का. वैसे तो यह पर्व मराठा संस्कृति और सभ्यता को प्रदर्शित करता है, लेकिन वाराणसी में गालियों के अंदर लोकमान्य तिलक द्वारा शुरू की गई वह परंपराएं आज भी महाराष्ट्र के लोगों ने जीवित रखी है, जो काशी में आकर बस गए. वाराणसी की ऐसी ही एक पुरानी परंपरा और 126 साल पुराने गणेश उत्सव की कहानी हम आपको बताने जा रहे हैं. जिसे लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से काशी में रहने वाले मराठा परिवारों ने शुरू किया और अनवरत या परंपरा आज भी जारी है.
दरअसल, वाराणसी के ब्रह्माघाट, बीवी हटिया, पंचगंगा घाट समेत कई ऐसे इलाके हैं. जहां आज भी बड़ी संख्या में महाराष्ट्र की आबादी वास करती है और इन्हीं मराठी परिवारों ने अपनी संस्कृति और सभ्यता को उत्तर प्रदेश में जीवित रखने के लिए महाराष्ट्र के इवेंट गणेश चतुर्थी की शुरुआत काशी में भी की. 126 सालों से गणेश उत्सव काशी में अनवरत रूप से जारी है. इस बारे में इस आयोजन समिति के ट्रस्टी विनायक त्रयंबक ने बताया कि जब अंग्रेजों से लड़ाई करने के क्रम में देशभक्ति के आंदोलन की अलख जगा रहे थे तब तमाम क्रांतिकारी और महान नेताओं ने देश में लोगों को एकजुट करने का काम शुरू किया तो, उस वक्त 1894 में लोकमान्य तिलक ने पुणे में गणेश उत्सव की शुरुआत की जहां पद्दगान और अन्य तरह के आयोजनों के जरिए लोगों के अंदर उत्साह भरने का काम किया जाता था. इस आयोजन से प्रेरणा लेकर चार साल बाद ही वाराणसी में 1898 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंकने के लिए लोकमान्य तिलक के निर्देश पर काशी में महाराष्ट्र की आबादी ने लोगों को एकजुट करने के लिए गणेश उत्सव की शुरुआत की. सबसे बड़ी बात यह है कि पूरे देश में गणेश उत्सव सबसे पहले महाराष्ट्र में सार्वजनिक रूप से शुरू हुआ और पहला शहर बनारस है. जहां महाराष्ट्र के बाहर इसकी शुरुआत की गई. यहां के मराठी परिवारों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए 7 दिन तक इस आयोजन को अनवरत रूप से जारी रखा और लगातार इस उत्सव की रूपरेखा खींचते हुए हर साल इसे आगे बढ़ाया गया. इससे खुश होकर 1920 में जब लोकमान्य तिलक वाराणसी आए तो उन्होंने इस उत्सव की भव्यता को देखकर महाराष्ट्र में होने वाले उत्सव से भी बेहतर इसे बताया और तब से यह परंपरा अनवरत रूप से चली आ रही है. उन्होंने बताया कि भले ही महाराष्ट्र के पुणे में अब पद्दगान और अन्य परंपराओं को खत्म कर दिया गया हो लेकिन आज भी बनारस में यह परंपरा निभाई जाती है और यहां की युवा पीढ़ी पद्दगान के साथ ही आज भी ढोल, नगाड़े, मजीरे लेकर भगवान गणपति का स्वागत करती है. इसकी रिहर्सल कई दिनों से जारी है. वही इस आयोजन से जुड़े तमाम युवाओं का कहना है कि हमारे पूर्वजों ने जो बीज बोया है उसे एक पेड़ के रूप में देखकर हमें बहुत अच्छा लगता है. हम सभी मिलकर इस आयोजन की तैयारी में जुटे रहते हैं और गणेश उत्सव को बड़े ही धूमधाम के साथ मनाते हैं.