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रांची की गुड़िया को संवारने में लगते हैं 20 घंटे, विदेश में मांग - झारखंडी गुड़िया

बार्बी डॉल से हम सभी वाकिफ हैं. साल 1959 में अमेरीका के मेटल कंपनी से बनकर बच्चों के बाजार में आई थी बार्बी डॉल . छह दशक बाद भी बच्चों के दिलों पर राज कर रही है.  लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि बार्बी से बिल्कुल अलग रांची में बनी झारखंडी गुड़िया बाजार के लिए तरस रही है.

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रांची की गुड़िया

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Published : Nov 3, 2020, 11:41 PM IST

रांची:झारखंडी की राजधानी रांची की गुड़िया अनूठी है. एक गुड़िया को संवारने में बीस घंटे लगते हैं. कल्पना, लगन और मेहनत के पसीने से तैयार होती है झारखंडी गुड़िया. इसमें भारत की संस्कृति झलकती है. इसके कई रूप हैं. कभी कृष्ण के प्रेम में खोई राधा बन जाती है तो कभी भगवान राम के साथ वनवास जाने वाली सीता. कभी झारखंडी वेशभूषा में नृत्य करते दिखती है तो कभी लैटिन अमेरीकन और अफ्रीकन बन जाती है. कभी माथे पर गगरी लिए पानी लेने चल पड़ती है तो कभी सहेली के साथ गप्पे हांकने बैठ जाती है. यानी गुड़ियों की ऐसी दुनिया जिसमें अपनापन झलकता है. इनको बाजार मिल जाए तो पता नहीं कितनों को रोजगार मिल जाए. इन गुड़ियों की दुनिया सजाई है रांची की शोभा कुमारी ने.

रांची की गुड़िया

कहां से मिली गुड़िया बनाने की प्रेरणा
आर्ट एंड क्राफ्ट का शौक रखने वाली शोभा कुमारी साल 2007 में अपने बेटे को कोचिंग कराने राजस्थान के कोटा शहर गई थीं. वहां से नौ किमी दूर अनुपम कुलश्रेष्ठ से गुड़िया बनाने का हुनर सीखने लगीं. एक तरफ बेटा पढ़ता रहा और शोभा कुमारी गुड़िया से नाता जोड़ती रहीं. नौ माह की मेहनत के बाद उन्होंने अलग-अलग कई गुड़िया तैयार की. उनमें से एक है आसमानी रंग की साड़ी पहनी गुड़िया, जो इन्हें आज भी प्रेरणा देती है.

गुड़ियों की सहेली बन चुकी हैं 25 महिलाएं
शोभा कुमारी ने सृजन हैंडीक्राफ्ट नाम से कंपनी बनाई है. इससे 25 महिलाएं जुड़ चुकी हैं. घर का काम निपटाते ही महिलाएं एक जगह जुट जाती हैं और फिर शुरू होता है गुड़ियों को तैयार करने का दौर. सूती के कपड़े में लकड़ी का बुरादा भरकर शेप तैयार किया जाता है. फिर एक अलग मेटेरियल से सिर बनाया जाता है. इसके बाद शुरू होता श्रृंगार.

इसके लिए बहुत बारीक काम करना पड़ता है. कपड़े का सेलेक्शन, उसकी कटाई-सिलाई, बिंदी, चूड़ी जैसे आभूषण तैयार करने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है. इन गुड़ियों की बदौलत कई महिलाएं अपनी गृहस्थी संभाल रही हैं. निशा मेहता, सेलिना कच्छप और नीरा प्रतिभा टोप्ना ने ईटीवी भारत के साथ गुड़ियों से जुड़े अपने अनुभव साझा किए.

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सात समंदर पार जा रही है रांची की गुड़िया
शोभा कुमारी ने बताया कि अब लोग उनसे संपर्क करने लगे हैं. कई लोग विदेशों में रह रहे अपनों के लिए गुड़िया ले जा चुके हैं. लेकिन तकलीफ इस बात की है कि इस हैंडीक्राफ्ट को झारखंड के उद्योग विभाग से कोई मदद नहीं मिली. बस रांची के जनजातीय शोध संस्थान की तरह से डिस्प्ले करने के लिए एक काउंटर मिला है. जहां आने वाले लोग प्रभावित होकर संपर्क करते हैं.

शोभा कुमारी कहती हैं कि आर्थिक सहायता मिलती तो इसका दायरा बढ़ जाता. घर बैठी महिलाओं को भी काम मिलता. लंबी जद्दोजहद के बाद शोभा कुमारी दिल्ली के आईटीओ स्थित जवाहरलाल नेहरू म्यूजियम और कोलकाता म्यूजियम में अपनी गुड़िया स्थापित कर पाई हैं.

कितने में मिलती है रांची की गुड़िया
हाथों से बनी इन गुड़ियों की कीमत नहीं लगाई जा सकती. फिर भी बीस घंटे की मेहनत के बाद तैयार एक सामान्य गुड़िया की कीमत 1500 रुपये रखी गई है. शोभा कुमारी ने बताया कि यह जीवनभर साथ निभाने वाली गुड़िया है, क्योंकि इसे तैयार करने में किसी तरह के केमिकल का इस्तेमाल नहीं होता.

हेमंत सरकार के लिए संदेश और आग्रह
कोरोना के दौर में वोकल फॉर लोकल पर जोर दिया जा रहा है. रांची की गुड़िया लोकल है और वोकल भी बन सकती है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हेमंत सरकार का उद्योग विभाग इसकी ओर देखे. थोड़ा सा सहयोग मिला तो बड़ी संख्या में महिलाएं आत्मनिर्भर बन सकती हैं.

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