नई दिल्ली :अज़ीमुश्शान शायर, मुफ़क़्क़िर व फ़लसफ़ीअसद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ मिर्ज़ा ग़ालिब के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वो भी एक क्रांतिकारी थे. उन्होंने भी अंग्रेजों के खिलाफ इंक़्लाब की आवाज को धार दी थी, लेकिन उनका अंदाज-ए-बयां कुछ और था. फिरंगी हुकूमत में अफसरों के ईर्द-गिर्द रहते हुए उन्होंने क्रांति की ज्वाला को हर पल धधकाए रखने में अपना किरदार बड़ी बारीकी से निभाया. इशारों की जुबान में शायरी करते हुए उन्होंने कई बार जरूरी जानकारियां और हालात का नक्शा क्रांतिकारियों और आजादी के परवानों को भेजा. ऐसे कई बयानात और दर्ज शायरी आज भी ग़ालिब के अंदाज-ए-क्रांति का सबूत हैं.
असद-उल्लाह ख़ां मिर्ज़ा ग़ालिब ने इशारों की जुबां में अंग्रेजों के कत्लेआम की बातें दोस्तों और कई लोगों तक पहुंचाई. इतिहासकार साकिब सलीम बताते हैं कि मिर्जा गालिब को लेकर कई सारी ऐसी बातें हैं, जिनको लोग नहीं जानते हैं. 1857 के विद्रोह में मिर्जा गालिब दिल्ली में थे. बहुत कम लोग यह जानते हैं कि हिंदुस्तान को लेकर उनकी सोच क्या थी. और उन्होंने उसके बारे में क्या लिखा और कहा.
दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 में क़लम से की थी क्रांति जब उस जमाने में अंग्रेजों के द्वारा कत्लेआम किया जा रहा था तो शायरी के जरिए उन्होंने इशारों-इशारों में दोस्तों और लोगों को अंग्रेजी हुकुम्मत की क्रूरता के बारे में बताया. बड़ा मुश्किल था अंग्रेजों के खिलाफ लिखना और क्रांतिकारियों का सपोर्ट करना. लेकिन मिर्जा गालिब ने जो उस जमाने में ख़त लिखे. अपने दोस्तों के नाम खत में उन्होंने यह लिखा था-
यह वही शहर है जहां मैं रहता हूं
यहां मैं अपनी बीवी के साथ रहता हूं
और मैं ख़ून में डूबा हुआ हूं
यानी कि यह शहर ख़ून में डूबा हुआ है
मैंने घर का दरवाज़ा पार नहीं किया है
और इसीलिए ना में पकड़ा गया हूं
ना ही मुझे जेल भेजा गया है
यानी कि जो भी घर से बाहर निकलेगा
अंग्रेज सरकार उसे पकड़ कर
जेल भेज देगी या फिर मार देगी।
दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 में क़लम से की थी क्रांति मिर्ज़ा ग़ालिब ने ये सारी बातें लिखीं. गुलामी के उस दौर में जब हर पल फिरंगी हुकूमत के कान दरो-दीवार पर लगे होते थे. उनकी गुप्तचरी करने वाले हर आम-ओ-ख़ास की खुफियागीरी करते थे. ऐसे संजीदा और खौफभरे हालात में मिर्ज़ा ग़ालिम ने एक और ख़त लिखा था. गुलामनबी साहब को 26 दिसंबर 1857 में. उन्होंने उसमें यह लिखा-
मैं लिख रहा हूं, मैं तुमको लिख रहा हूं
वरना मैं लिख भी क्या सकता हूं
क्या हम में से कोई भी लिख सकता है
सही से कोई भी लिख सकता है
क्या यह सच नहीं है कि हम जिंदा हैं
मैं भी ज़िदा हूं और तुम भी ज़िदा हो
इससे ज्यादा हम कुछ नहीं बोल सकते
दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 में क़लम से की थी क्रांति उर्दू और फारसी के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 1796 को सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था. ग़ालिब की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी. गालिब की हवेली जरूर पुरानी दिल्ली में है, लेकिन उनका मज़ार-ए-मिर्ज़ा ग़ालिब टॉम्ब हज़रत निजामुद्दीन में है. उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग़ ख़ान मध्य एशिया के समरकंद से 1750 के आसपास अहमद शाह के शासन काल में भारत आए थे.
दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 में क़लम से की थी क्रांति उन्होंने दिल्ली, लाहौर और जयपुर में काम किया. आखिर में आगरा में बस गए. उनके दो बेटे मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान, मिर्ज़ा नसरुल्लाह बेग खान और तीन बेटियां थीं. ग़ालिब के पिता मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बेग ने इज़्ज़त-उन-निसा बेगम से निकाह किया और अपने ससुर के घर रहने लगे. उन्होंने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निज़ाम के यहां काम किया. अलवर में 1803 में एक युद्ध के दौरान उनकी मौत हो गई. उस समय ग़ालिब महज 5 साल के थे. फौजी परिवार के इस बच्चे ने तलवार, ढाल और नेज़े की जगह क़लम, दवात और काग़ज़ को चुना.
दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 में क़लम से की थी क्रांति उनका निकाह 13 साल की उम्र में नवाब इलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया. शादी के बाद वह दिल्ली आकर बस गए. मुग़लों की दिल्ली यानी शाहजहांनाबाद में ग़ालिब ने अपने जीवन के करीब 55 बरस बिताए. ग़ालिब का अधिकतर जीवन गली क़ासिम जान में बीता. दिल्ली के मौजूदा भूगोल के हिसाब से यह गली आज के चांदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के भीतर जाने पर हकीम शरीफ खां की मस्जिद के नजदीक है. ग़ालिब की हवेली को सरकार ने उनकी धरोहर के रूप में संजोकर रखा है. ग़ालिब की जिंदगी को पर्दे पर उतरने के लिए अजीम फनकार गुलज़ार साहब ने कुछ इश अंदाज़ में ग़ालिब का पता दिया.
दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 में क़लम से की थी क्रांति बल्लीमारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वा..
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे
एक बकरी के मिम्याने की आवाज़
और धुंधलाई हुई शाम के बे-नूर अंधेरे साए
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ के चलते हैं यहां
चूड़ी-वालान के कटरे की बड़ी-बी जैसे
अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अंधेरी सी गली-क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुरआनी सुख़न का सफ़ा खुलता है
असदुल्लाह-ख़ां-'ग़ालिब' का पता मिलता है
दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 में क़लम से की थी क्रांति मिर्ज़ाा ग़ालिब आख़िरी मुग़लकाल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी थे. शहंशाह बहादुर शाह जफर ने मिर्ज़ा ग़ालिब को 1850 में दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा. बाद में उन्हें मिर्ज़ा नौशा का खिताब भी मिला. वे शहंशाह के दरबार में अहम दरबारियों में शुमार थे. नाम, शोहरत, रुतबा और इज्ज़त सब कुछ ग़ालिब के कदम चूम रहे थे. बाद के दौर में शराब और जुए की लत ने उनको ऐसा जकड़ा कि ताउम्र निजात न मिल सकी. जुए के चक्कर में एक बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा था. उन्हें हर वक्त तन्हा मौत का डर सताता रहता था. हिंदुस्तान की आज़ादी के पहले ग़दर (1857) के बाद दिल्ली में हुई मारकाट के बारे में 1858 में अपने शागिर्द मुंशी हरगोपाल तफ्ता के नाम लिखी चिट्ठी में ग़ालिब ने ग़दर का हाल बयान किया था. उनके कई ख़त में इशारों के जरिए क्रांति का हाल बयान किया गया मिलता है.
दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 में क़लम से की थी क्रांति ग़ालिब अपनी पूरी पेंशन शराब पर खर्च देते थे. कभी-कभी इंसान के सामने अभाव और संघर्ष की दीवार खड़ी हो जाती है. उस दीवार में जो दरार पैदा कर दे उसे ही ग़ालिब कहते हैं. उन्होंने दर्द को भी सुकून का लिबास पहनाकर जिंदगी को जीया. उनकी शायरी ने दिल की हर सतह को छुआ. उनकी शायरी ऐसी है कि वो दर्द को कम नहीं करती, बल्कि इतना बढ़ा देती है कि दर्द का अहसास ही खत्म हो जाता है.
दबीर-उल-मुल्क मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 में क़लम से की थी क्रांति ग़ालिब के बारे में कहा जाता है कि उन्हें आम खाने का बहुत शौक था. एक बार मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फर और उनके कुछ साथियों के साथ ग़ालिब बाग-ए-हयात बख्श व किला-ए-मुबारक (लाल किला) में टहल रहे थे. वहां अलग-अलग किस्म के आम के पेड़ थे, जो सिर्फ़ बादशाह, शहज़ादों के लिए थे. ग़ालिब चलते-चलते हर आम को बड़े ध्यान से देख रहे थे. इस पर बादशाह ने उनसे पूछा, 'आप हर आम को इतने गौर से क्यों देख रहे हैं' ग़ालिब ने कहा, ' एक बार किसी शायर ने कहा था कि हर आम पर उसे खाने वाले का नाम लिखा होता है. मैं अपने दादा, वालिद और अपना नाम इन आमों पर तलाश रहा हूं.' बादशाह मुस्कुराए और उन्होंने शाम तक मिर्ज़ा ग़ालिब के घर आम भिजवा दिए.
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नई दिल्ली के ब्रिटिश हुकूमत की राजधानी बनने से पहले ही 15 फरवरी 1869 को इस महान शायर ने दुनिया को अलविदा कह दिया. उर्दू शायरी के इस शायर की मज़ार दिल्ली में ही है. दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन में ग़ालिब की मज़ार हजरत निजामुद्दीन औलिया की खानकाह के पास ही है. ग़ालिब की सात औलादें हुईं, लेकिन कोई भी जीवित नहीं रह सकी. इस ग़म से उबरने के लिए उन्होंने शराब का दामन थाम लिया. उनकी शायरी में ये ग़म भी मिलता है.
एक किस्सा ऐसा भी है जब उन्होंने स्वाभिमान से समझौता नहीं किया. उन्हें दिल्ली के कॉलेज में फारसी पढ़ाने के लिए बुलवाया गया. वह पालकी में सवार होकर कॉलेज पहुंचे, लेकिन दरवाजे पर कोई उन्हें लेने नहीं आया. ग़ालिब अंदर नहीं गए और कहा कि साहब मेरे इस्तेकबाल के लिए बाहर नहीं आए, इसलिए मैं भी अंदर नहीं जाऊंगा. मैं ये नौकरी अपने खानदान की इज्ज़त बढ़ाने के लिए करना चाहता था न कि घटाने के लिए.