हैदराबाद : हिंद महासागर क्षेत्र सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक गलियारों में से एक है. यह मध्य-पूर्व, यूरोप, अफ्रीका, दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व और पूर्वोत्तर एशिया को जोड़ता है. भारत और अमेरिका इस क्षेत्र में प्रमुख भूमिका निभाने वाले देश हैं. हालांकि, चीन की बढ़ती चुनौती से निपटने के लिए आईओआर में दोनों देशों ने कई रणनीतिक साझेदारों को इसमें शामिल किया है. कितनी अहम है ये साझेदारी और भारत के लिए क्या हैं चुनौतियां, एक नजर.
आईओआर में भारत की भूमिका और चुनौतियां
हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) व्यापक इंडो-पैसिफिक का एक महत्वपूर्ण जंक्शन है. यह सबसे महत्वपूर्ण व्यापार गलियारों में से एक है, जो मध्य-पूर्व, यूरोप, अफ्रीका, दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व और पूर्वोत्तर एशिया को जोड़ता है.
इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन (आईओआरए) द्वारा उल्लिखित, आईओआर में लगभग 2.7 बिलियन लोग रहते हैं. दुनिया के कंटेनर जहाजों का आधा हिस्सा यहां से होकर गुजरता है. दुनिया के थोक कार्गो ट्रैफिक का एक तिहाई और दुनिया के तेल शिपमेंट के दो तिहाई हिस्से यहीं से होकर गुजरते हैं.
इस इलाके में भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका प्रमुख भूमिका निभाने वाले देश हैं. दोनों इसे अच्छी तरह से समझते भी हैं. लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति की वजह से आईओआर में नई भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ने लगी है. निश्चित तौर पर भारत आईओआर में चीन की बढ़ती भूमिका को रणनीतिक रूप से नजरअंदाज नहीं कर सकता है, वहीं दूसरी ओर चीन यहां पर अपने आप को प्रमुख खिलाड़ी के रूप में स्थापित करने पर अड़ा हुआ है.
मैरिटाइम के क्षेत्र में चीन सबसे बड़ी शक्ति बनना चाहता है. आईओआर की रणनीति उसी का एक हिस्सा है.
भारत के हित
हिंद महासागर के क्षेत्र में भारत का बहुत बड़ा हित है. यहां पर शांति और सुरक्षा बनाए रखने में भारतीय नौसेना बहुत अहम भूमिका निभाती है. अब जबकि चीन धीरे-धीरे कर अपनी उपस्थिति और आवाजाही बढ़ा रहा है, भारत ने मैरिटाइम एनगेजमेंट और नीति का पुनर्मूल्यांकन करना शुरू कर दिया है. क्षमता के मामले में भले ही कई कमियां हों, लेकिन भारत का भूगोल और परिचालन संबंधी अनुभव उसकी मजबूती है.
क्या चीन को इस क्षेत्र में अपने आप को बनाए रखने और अनुभव प्राप्त करने के साधनों और तरीकों को खोजने का प्रबंधन करना चाहिए. लेकिन ऐसा हुआ, तो यह भारत के एडवांटेज को खत्म कर देगा.
यह देखते हुए कि न तो भारत और न ही चीन अपना प्रभुत्व, रणनीतिक संकेतन, शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता है. इस क्षेत्र में परिवर्धित परिचालन क्षमताओं के मामले में जब तक भारत को एडवांटेज है, तब तक चुनौती नहीं दिया जा सकता है.
भारत की वर्तमान नीति
भारतीय नौसेना हिंद महासागर के कई समुद्री चॉकप्वाइंट्स पर बहुत महत्व रखती है. ये दुनिया के सबसे रणनीतिक रूप से मूल्यवान चॉकप्वाइंट्स में से हैं. क्योंकि वे महत्वपूर्ण बाजारों, भागीदारों और क्षेत्रों तक पहुंच और पारगमन के लिए महत्वपूर्ण हैं.
भारतीय नौसेना अपने हित के प्राथमिक क्षेत्रों के रूप में निम्नलिखित चॉकप्वाइंट्स को सूचीबद्ध करती है, जो संघर्ष के समय में प्रतिकूल परिस्थितियों को नियंत्रित करने और इन अभिगम बिंदुओं को अस्वीकार करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है.
- मलक्का और सिंगापुर जलडमरूमध्य : आईओआर को दक्षिण और पूर्वी चीन सागर और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र से जोड़ता है. प्रशांत महासागर से हिंद महासागर तक जाने के लिए वैकल्पिक मार्ग में इंडोनेशिया के सुंडा, लोंबोक और ओंबाई वेटार प्रमुख हैं. पनडुब्बियों के लिए खासकर. क्योंकि ये जलमग्न होकर बिना किसी के पकड़ में आए ही क्रॉस कर सकती है.
- होर्मुज जलडमरूमध्य : यह मध्य पूर्व में फारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी को अरब सागर से जोड़ती है, जो हिंद महासागर में खुलती है.
- बाब-अल-मंडब : लाल सागर को अदन की खाड़ी से जोड़ता है, जो आईओआर में खुलता है.
- स्वेज नहर : यह यूरोप को आईओआर के माध्यम से एशिया से जोड़ती है.
- मोजांबिक चैनल: स्वेज नहर के विकल्प के साथ-साथ यह एशिया, ऑस्ट्रेलिया और उससे आगे के लिए केप ऑफ गुड होप को पार करने वाले जहाजों के लिए रूट प्रदान करता है. यह अफ्रीका के पूर्वी तट से पानी में पहुंच और उपस्थिति के लिए रणनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है.
समुद्री सुरक्षा रणनीति
जब भी संघर्ष या किसी उच्च तैयारी की स्थिति हो, तो समुद्री सुरक्षा रणनीति की भूमिका बहुत अहम होती है. समुद्री अभियानों के संचालन के लिए बढ़ाई गई तत्परता या संघर्ष के समय में, संचार और एसएलओसी की समुद्री रेखाएं भारत और विपक्षी दोनों के लिए क्रमशः सुरक्षा और अंतर्विरोधी उपायों की आवश्यकता को बढ़ाएगी.
परिचालन परिनियोजन के अनुसार, भारतीय नौसैनिक जहाज हमेशा बंगाल की उत्तरी खाड़ी में और उत्तरी अंडमान और दक्षिण निकोबार के बीच मौजूद रहता है. यह होर्मुज के जलडमरूमध्य के पास और उत्तरी अरब सागर के पास रहता है. अंडमान श्रृंखला में मलक्का जलडमरूमध्य के बगल में. मालदीव और श्रीलंका के बीच दक्षिण हिंद महासागर में, और मॉरीशस और सेशेल्स से दक्षिण पश्चिम हिंद महासागर में बाब-अल-मंडब को जोड़ने वाली खाड़ी के बीच.
इस तरह की तैनाती दिल्ली को अपनी सजगता बढ़ाने, डोमेन जागरूकता पैदा करने और खतरों और चुनौतियों का तुरंत जवाब देने की क्षमता देता है. एमबीडी भी सुरक्षा प्रदाता के रूप में भारत की भूमिका को मजबूत करता है. एमबीडी ने भारतीय नौसेना को अपनी उपस्थिति बढ़ाने की अनुमति दी है, प्रभावी स्थायित्व और सिग्नलिंग के लिए स्थिरता भी महत्वपूर्ण है.
भारत की आधिकारिक विदेश नीति विदेशी ठिकानों की अनुमति नहीं देती है, हालांकि इसकी नौसेना को प्रभावी ढंग से मिशनों को पूरा करने के लिए अपने संचालन के क्षेत्र के करीब रसद सुविधाओं तक पहुंच की आवश्यकता होती है.
लॉजिस्टिक्स सुविधाएं नौसेना के अपने उद्देश्यों को देने और अपने रणनीतिक लक्ष्यों की रक्षा करने की क्षमता को मजबूत करती हैं.
साझेदारी बढ़ाने से बढ़ेती भारत की ताकत
आईओआर में लगातार उपस्थिति और परिचालन क्षमता बरकरार रखने के लिए भारत को रणनीतिक साझेदार की जरूरत होगी, जो उसे साजो-सामान और पहुंच में मदद कर सके.
इसके बदले में, भारत नियमों पर आधारित व्यवस्था को बनाने में अग्रणी भूमिका निभा सकता है. यह फ्रांस, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साझा हितों और समान चुनौतियों का ख्याल रखेगा.
फ्रांस और अमेरिका के साथ भारत ने लॉजिस्टिक समझौते किए हैं. यूके और ऑस्ट्रेलिया के साथ ऐसे ही समझौतों पर विचार करने की जरूरत है.
आईओआर के पूरे इलाका काफी बड़ा है. लिहाजा, चीन के साथ प्रतिस्पर्धा में नौसेना को मजबूत (लॉजिस्टिक सपोर्ट) रखने के लिए भारत को सहयोगियों की जरूरत पड़ेगी.
जिबूती, आबूधाबी और ला रीयूनियन जैसे प्रमुख चॉकप्वाइंट्स में फ्रांस ने पहुंच दी है. जाहिर है, जिबूती और आबुधाबी स्थित फ्रांस बेस में होस्ट नेशन की सहमति आवश्यक होगी. लेकिन ला रीयूनियन के लिए किसी तीसरे देश की इजाजत की जरूरत नहीं होगी. इससे प्रशांत महासागर के द.पश्चिम और मोजांबिक चैनल तक पहुंच निर्बाध होगी.
भारत के समुद्री टोही विमान और P-8I को फ्रांस के बेस से ला रीयूनियन में तैनात करने से भारतीय नौसेना को पश्चिमी हिंद महासागर और अफ्रीका के पूर्वी तट में अपनी उपस्थिति बढ़ाने में मदद मिलेगी. वर्तमान में भारत की उपस्थिति और संचालन के लिहाज से यह एक कमजोर बिंदु है.
इसी तरह से बहरीन और डियागो गार्सिया में अमेरिका की उपस्थिति है. ये दोनों ही क्षेत्र आईओआर के रणनीतिक प्वांइट माने जाते हैं. अगर समझौता हो जाता है, तो भारत यहां से संवेदनशील गतिविधि पर नजर रख सकता है. उसके टोही विमान का अच्छा उपयोग हो सकता है.
अंडमान-निकोबार और डियागो गार्सिया भारत और अमेरिका दोनों के नौसैनिकों के लिए एडवांटेज प्रदान करता है. दोनों ही देश पी-8 का साझा उपयोग कर सकते हैं. इससे आपसी समझ और अधिक मजबूत होगी.
हालांकि, जिस तरह के इनके रणनीतिक महत्व हैं, दोनों ही देश एक दूसरे को बहुत ज्यादा पहुंच नहीं दे सकते हैं. भारत और अमेरिका मैरिटाइम डोमेन अवेरनेस क्षमता को मजबूत करने पर जोर अवश्य ही दे सकते हैं.
भारत-अमेरिका-जापान के बीच सालाना मलाबार अभ्यास के जरिए भी बहुत हद तक एक दूसरे को समझ रहे हैं. अंडमान-निकोबार, डियागो गार्सिया और संभवतः ओकिनावा के रणनीतिक क्षेत्रों का उपयोग किया जा सकता है.
भारत को जापान के साथ लॉजिस्टिक समझौते करने पर आगे बढ़ना चाहिए. हालांकि, आईओआर में जापान की बहुत अधिक उपस्थिति नहीं है. फिर भी दोनों देश समुद्री क्षेत्रों में आपसी सहयोग और अधिक गहरा कर सकते है.
यदि यह समझौता हो जाता है, तो जापान को मानवीय सहायता, आपात काल सेवा, डिजास्टर रिलीफ में मदद मिल सकेगी.