बात 1925 की है. गांधी ने अचानक ही अपने आश्रम में एक सप्ताह के अनशन की घोषणा कर दी. आश्रम में रहने वाले सभी युवाओं के बीच यह चर्चा का विषय बन गया. गांधी ने कहा कि आपलोग मेरी मृत्यु का कारण ना बनें. उनके ऐसा कहते ही आश्रम में रहने वाले युवाओं ने अनैतिक कार्य छोड़ दिए. उन्होंने गांधी से माफी मांगी. ऐसी थी गांधी की नैतिक शक्ति.
गांधी ने द. अफ्रीका और भारत में कुल चार आश्रम बनाए थे. द. अफ्रीका में फोनिक्स और डरबन तथा साबरमती और वर्धा सेवाग्राम भारत में. यह आश्रम से ज्यादा सामाजिक प्रयोगशाला की तरह था.
बहुत सारे लोग गांधी को सिर्फ स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर जानते हैं. वे उन्हें राष्ट्रपिता कहते हैं. लेकिन वास्तव में वह ईश्वरदूत जैसे थे, जिन्होंने समाज और जीवन में वैकल्पिक शैली के साथ-साथ अलग सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया. उन्होंने इसे लागू भी किया. हमने इतिहास में बहुत सारे ऐसे लोगों को देखा है, जो बड़ी-बड़ी बातें करते थे, लेकिन व्यवहार में उसे उतारते नहीं थे. पर, गांधी एक ऐसे व्यक्ति थे, जो जितना कहते थे, उससे भी अधिक करते थे. सबसे बड़ी बात ये है कि गांधी साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता पर भी उतना ही जोर देते थे. यही वजह थी कि उनका आश्रम एक सामाजिक प्रयोग शाला जैसा था और वहां से उच्च आदर्श वाले व्यक्ति निकलते थे.
आश्रम की व्यवस्था पहले भी थी, लेकिन तब वहां लोग मोक्ष की प्राप्ति के लिए जाया करते थे. गांधी उन ऋषियों से हटकर थे. उनके लिए आश्रम का अर्थ था...नए समाज का निर्माण करना, नई पीढ़ी को विकसित करना जो अहिंसा के मार्ग पर चलकर संघर्ष कर सके. आश्रम में हर व्यक्ति समान था. जाति, धर्म, लिंग, देश, भाषा किसी भी स्तर पर कोई भेदभाव नहीं था. वहां रहने वाला हर व्यक्ति हर काम करता था, ट्वॉइलेट सफाई से लेकर खाना बनाने तक का कार्य. बल्कि उन्होंने आश्रम वासियों के लिए 11 सिद्धान्तों का पालन अनिवार्य कर दिया था.
ये सिद्धान्त हैं...सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शारीरिक श्रम, अस्वद, अभय, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी और अस्पृश्यतानिर्वाण.
आप कह सकते हैं धरना, हड़ताल, नागरिक अवज्ञा, टैक्स जमा नहीं करने वगैरह-वगैरह से हमको आजादी मिल जाती. लेकिन इसके लिए आश्रम की जिंदगी क्यों जरूरी है. क्यों कसमें खाएं और सिद्धान्तों का पालन करें. ऐसा इसलिए क्योंकि गांधी सिर्फ आजादी नहीं चाहते थे, बल्कि वह चाहते थे कि हर व्यक्ति आजादी से जी सके. वह अपने तरीके से चीजों को तय कर सके. जिंदगी में उसका भी उद्देश्य होना चाहिए और वह प्रकृति के विरुद्ध ना हो. बल्कि उससे सामंजस्य बिठाकर चले.
जातिगत भावना, धार्मिक घृणा, खुदगर्जी, भौतिक भोगविलास के प्रति लालच, हिंसक प्रवृत्ति, लिंग भेद..ये सभी कुरीतियां तब भी थीं और आज भी हैं. इसलिए गांधी ने लोगों में नैतिक सुधार पर जोर दिया. वह एक उच्च आदर्श वाले व्यक्ति के रूप में तब्दील कर सके. गांधी का आश्रम इस लिहाज से सफल प्रयोगशाला था. वे लोग अपना-अपना प्रयोग कर सकते थे. असहयोग, अहिंसा एक व्यक्ति के अंदर बड़ा परिवर्तन लाता है. वे प्रयोगों के लिए सत्याग्रही को तैयार करते हैं और सच्चाई के साथ प्रयोग करने के लिए तैयार करते हैं. वे नैतिक और वित्तीय मदद देते हैं. अहम बात ये है कि सभी आंदोलनकारी रचनात्मक कार्यों में भागीदारी करने के लिए तैयार रहते हैं.
भारती की जाति व्यवस्था ने हर सामाजिक स्तर पर सोपाननुमा समाज बना दिया है. इसने पीढ़ियों से दलितों को अछूत बना दिया. अछूत व्यवस्था को खत्म करना गांधी के रचनात्मक कार्य का प्रमुख उद्देश्य था. जब आश्रम में एक दलित दंपती का प्रवेश हुआ, शुरू में उनके खिलाफ आक्रोश था. यहां तक कि कस्तूरबा भी खुश नहीं थीं. नाई ने उनके बाल काटने से मना कर दिया. कस्तूरबा ने जो पैसे दिए थे, उसे रोक लिया गया. इसके बावजूद गांधी झुके नहीं. उन दिनों दलितों को हरिजन कहा जाता था. यह एक क्रांतिकारी कदम था.
शासक वर्ग हमेशा दो अलग-अलग वर्गों के बीच परस्पर दुश्मनी को बढ़ावा देता है. ब्रिटिश ने यही किया था. इस तरह की सोच के खिलाफ गांधी ने सभी धर्मों के साथ सह अस्तित्व को बढ़ावा दिया. उसे प्रचारित किया. हर दिन सर्वधर्म प्रार्थना का आयोजन किया करते थे. उसके बाद गांधी हर दिन संवाद करते थे. टॉल्सटाय फार्म हो या साबरमती आश्रम, वहां रहने वाले हर व्यक्ति को भौतिक कार्य करना होता था.