नई दिल्ली : एक तरफ नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) पर पूरे देश में तेज बहस हो रही है. वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट संविधान की रक्षा के लिए कई कदम उठा रहा है. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आखिर हमारे संविधान के कामकाज करने का तरीका कैसा है तथा संविधान अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में कितना कामयाब हुआ. इस विषय पर ईटीवी भारत ने राज्यसभा के पूर्व महासचिव योगेन्द्र नारायण से खास बातचीत की है. आइए जानते हैं अलग-अलग विषयों पर क्या कहा उन्होंने.
योगेन्द्र नारायण ने विस्तार से बताया है कि हमारी व्यवस्थाओं में क्या कमी है और क्या है हमारी ताकत.
सवाल - पिछले 70 सालों में संसद के व्यवहार और दृष्टिकोण में कितना बदलाव आया है.
मेरे अनुसार, दोनों सदनों (उच्च सदन और निचले सदन) में संसद के नए सदस्य शामिल हैं. अच्छी तरह से शिक्षित हैं. सीखे हुए हैं और मुखर हैं. हालांकि, इस समय मूल्यों का क्षरण हुआ है. जब मैं महासचिव (2002-07) था, मेरे पास मध्य प्रदेश के स्थानीय क्षेत्र विकास योजना घोटाले का मामला आया था. उस घोटाले में, संसद के कुछ सदस्यों ने परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिए पैसे लिए थे. एक अन्य घोटाले में, एक मुद्दा सामने आया, जब संसद के कुछ सदस्यों ने विशेष प्रश्न पूछने के लिए नकद लिया.
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इसलिए मैं कहूंगा कि वर्तमान स्थिति की तुलना में पहले के सदस्यों में मूल्य अधिक थे. यानि आप कह सकते हैं कि कुल मिलाकर नैतिक मूल्यों में गिरावट आई. लेकिन साथ ही साथ बहुत ही उच्च शिक्षित और पढ़े-लिखे लोग भी आए हैं.
ईटीवी भारत से बातचीत करते राज्यसभा के पूर्व महासचिव योगेन्द्र नारायण अब पार्टियों की संख्या बढ़ गई है. भारत के चुनाव आयोग के पास 1200 से अधिक पार्टियां पंजीकृत हैं. हालांकि चुनावों में केवल 250 से 300 ही भाग लेते हैं, लेकिन यह तथ्य है कि हमारे पास विभिन्न प्रकार की पार्टियां हैं.इसके अलावा, अब हमारे पास ऐसी सरकार है और वे सहायक दलों या अन्य क्षेत्रीय दलों की जरूरतों, भावनाओं और भावनाओं से कटे हुए हैं.
संसद में चर्चा के दौरान क्षेत्रीय मुद्दों को जगह मिल रही है. वे प्रमुख विषय बन गए हैं. यह एक स्वस्थ विशेषता है. ऐसा इसलिए क्योंकि हम एक संघीय व्यवस्था से जुड़े हुए हैं. हमारे पास राज्य और उनके स्थानीय विधायक भी हैं.
समस्या यह है कि संसद वास्तव में संविधान में केंद्रीय सूची में वस्तुओं पर चर्चा के लिए है. लेकिन अब हम विशेष उल्लेखों पर समय व्यतीत करते हैं या राज्यों के विषयों पर विशेष ध्यान देते हैं. यह पहले के मुकाबले ज्यादा हो रहा है. इसलिए यह संसद के मुख्य जोर को केवल केंद्रीय विषयों पर चर्चा में ले जाता है.
लेकिन, एक संतुलन है और संतुलन को पीठासीन अधिकारियों द्वारा बनाए रखा जाता है क्योंकि वे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और तब हमारे पास 'पार्टियों' शब्द का एक नया परिचय था.
इसलिए आप देखते होंगे कि संसद में चर्चा के दौरान पार्टियां भाग लेती हैं, ना कि व्यक्तिगत सदस्य. संसद के सदस्यों ने व्यक्तिगत रूप से पार्टी लाइन को फॉलो किया है. यदि विरोध करते हैं, तो उनकी सदस्यता खतरे में पड़ जाती है. ऐसा पहले नहीं था. मैं तो इसे गिरावट के रूप में देखता हूं. मेरी राय यह है कि सांसदों के स्वतंत्र विचार ज्यादा जरूरी हैं. अब पार्टियों ने दलबदल-विरोधी कानून के साथ संसद पर अपना कब्जा जमा लिया है. इसे ठीक करने की जरूरत है.
दूसरा तथ्य, जो मैं आपके संज्ञान में लाऊंगा, वह यह है कि संविधान ने एक संघीय ढांचे की परिकल्पना की थी.
लेकिन, राष्ट्रपति शासन के लिए अनुच्छेद 356 का के दुरुपयोग का. अब तक 100 से अधिक बार इसका इस्तेमाल हो चुका है. इसका अर्थ ये हुआ कि संसद राज्य का कामकाज करने लगी. राज्य के विधायक और विधानमंडल निष्क्रिय हो जाते हैं. यह भी संविधान में गिरावट ही है.
और फिर यह संसद में अनुमोदन के लिए आता है और पार्टियां अपना पक्ष रखती हैं कि क्या वे इसे मंजूरी देने जा रहे हैं या नहीं. क्या सही है और गलत है. मैं फिर से कहूंगा कि जिन राज्यों को राज्यसभा का प्रतिनिधित्व करना चाहिए, उनके व्यक्तिगत विचार बिल्कुल भी मौजूद नहीं हैं.
कार्यवाही में खलल डालना या कभी-कभी उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए कागजों को फाड़ देना भी बहुत हतोत्साहित करने वाली विशेषता है.
सवाल - क्या सरकार संविधान की रक्षा करने में सफल रही है ?
मुझे लगता है कि संविधान समय की कसौटी पर खरा उतरा है. मैं यह दो कारणों से कहता हूं. हमारे पास कभी भी ऐसी स्थिति नहीं है, जहां किसी भी सत्ताधारी पार्टी या हारने वाली पार्टी ने बल की मदद से राज्य लिया है, जैसा कि पाकिस्तान या बांग्लादेश में है. हम संविधान का पालन करते हैं. जैसे ही सत्ता पक्ष हारता है, वे शांति से जीतने वाली पार्टी को सत्ता सौंप देते हैं.
समय के साथ बदलाव होते गए. हमने उसे स्वीकार किया. इसका ही परिणाम है कि हमने संविधान में अब 102 से अधिक संशोधन किए. सभी संस्थान अच्छी तरह से काम कर रहे हैं. अगर न्यायपालिका सरकार को कुछ करने का निर्देश देती है, तो सरकार इससे सहमत है. कभी भी हमारी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को 'नहीं' नहीं कहा. यदि वे अभी भी कोई बदलाव चाहते हैं, तो वे सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि वह उसकी याचिका की समीक्षा करें. चुनाव आयोग ने विस्तार से स्वतंत्र रूप से काम किया है. भारत में चुनाव बहुत निष्पक्ष रहे हैं. जब भी राजनीतिक दलों को लगा कि चुनाव अनुचित है, सुप्रीम कोर्ट के पास एक समाधान है.
ईटीवी भारत से बातचीत करते राज्यसभा के पूर्व महासचिव योगेन्द्र नारायण हां, भ्रष्टाचार का सवाल जरूर परेशान करता है. टेलीकॉम, कोयला खनन से जुड़े और अन्य घोटाले सामने आते थे, लेकिन अब पिछले आठ से दस सालों में उच्च स्तर पर कोई घोटाला नहीं हुआ है. क्योंकि लोग सतर्क हैं, केवल निचले स्तर पर भ्रष्टाचार की सूचना है. सभी राजनीतिक दलों को, मैं सुझाव दूंगा, 'आपको विरोध करने का अधिकार है, लेकिन हिंसा अधिकार नहीं है, सार्वजनिक संपत्ति का विनाश अधिकार नहीं है.'
सवाल - क्या नागरिकता संशोधन अधिनियम धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का उल्लंघन है, जैसा कि लोग कहते हैं. उस पर आपके विचार ?
मुझे लगता है कि सीएए संविधान सम्मत है. हालांकि लोग इसकी तुलना अनुच्छेद 15 से करते हैं, लेकिन मैं कहूंगा कि सीएए और अनुच्छेद 15 अलग हैं.
अनुच्छेद 15 कहता है कि नागरिकों के बीच कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए, जिसका अर्थ है कि यदि आप एक नागरिक हैं, तो कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए. लेकिन अगर आप नागरिक नहीं हैं, तो भेदभाव की कोई बात नहीं है. सरकार को यह तय करने का अधिकार है कि वे किसे नागरिकता देना चाहते हैं और किसे नहीं दिया जाना चाहिए.
ईटीवी भारत से बातचीत करते राज्यसभा के पूर्व महासचिव योगेन्द्र नारायण दूसरी बात, संसद में इसका विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को सड़कों पर ले जाने और हिंसा में लिप्त होने के बजाय मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाना चाहिए. सार्वजनिक वाहनों, संपत्तियों को इसकी वजह से नुकसान हुआ है. चूंकि हमारे पास एक कानूनी उपाय है, उन्हें प्रक्रिया का पालन करना चाहिए.
सीएए पहले छह बार संशोधित किया गया है. इसलिए, जब पार्टियां सत्ता में आती हैं, तो वे फिर से अधिनियम में संशोधन कर सकते हैं और जो चाहे उन्हें नागरिकता दे सकते हैं. मैं दुखी हूं कि उन्होंने विश्वविद्यालयों के युवाओं को इसमें झोंक दिया गया है.
सवाल - संसद में विधेयकों के पश करने के तरीके पर कुछ कहना चाहेंगे...
आम तौर पर, हमारे पास विधेयकों की जांच और विश्लेषण में संसद की सहायता के लिए विभाग से संबंधित समितियां हैं. विभाग से संबंधित सभी बिल तदनुसार काम करते हैं. लेकिन, यह सदन की इच्छा है कि बिल पर सीधे बहस की जाए या उसे समिति के पास भेजा जाए. याद रखें समिति जो भी निर्णय करे, होगा वही जिसका संसद में बहुमत है. बिल हाउस के सदस्यों के अधीन होता है कि वह यह तय करे कि उसे जाना चाहिए या नहीं. और मुझे समझ नहीं आ रहा है कि यह राज्यसभा में क्यों नहीं हो रहा है, क्योंकि अगर विपक्ष वास्तव में संयुक्त है और किसी विशेष विधेयक के खिलाफ है या समिति को चर्चा के लिए भेजना चाहता है, तो उन्हें ऐसा करना चाहिए.
सवाल - हमारा संविधान 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था. और 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ था. इस छोटे अंतर का कारण क्या है ?
इस छोटे अंतर का कारण यह है कि संविधान और निर्माताओं को अपनाने वाले घटक विधानसभा ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं. यह दो महीने की अवधि जनता को जानने और समझने के लिए थी. और एक बार जब सभी को भारत के संविधान के बारे में पता चला, तो यह भारत के राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित किए जाने के बाद लागू हुआ.
ईटीवी भारत से बातचीत करते राज्यसभा के पूर्व महासचिव योगेन्द्र नारायण