महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि 'मैं एक व्यावहारिक आदर्शवादी होने का दावा करता हूं.' जीवन और समस्याओं से मुझे कई बातें सीखने को मिली, गांधी इस बात की व्याख्या करते हैं. गांधी ने उस दावे को खारिज कर दिया, कि उन्होंने मानवता के लिए किसी नए दर्शन या संदेश की खोज की है. उन्होंने घोषणा की थी, 'मेरे पास दुनिया को सिखाने के लिए कुछ नया नहीं है.' उन्होंने कहा था 'सत्य और अहिंसा उसी तरह पुराने हैं, जैसे पर्वत.'
सत्य का लक्ष्य पाने के लिए अपनी अनथक कोशिशों के दौरान गांधी ने अपने प्रयोगों के अलावा गलतियों से भी सीख हासिल की. सत्य और अहिंसा गांधी के दर्शन का मूल सिद्धांत हैं. हालांकि, एक जैन मुनि के साथ चर्चा के दौरान गांधीजी ने स्वीकार किया था कि सत्य उनकी सहज प्रवृत्ति है, लेकिन वे अहिंसक नहीं हैं. महात्मा ने कहा था 'मैं सत्यवादी रहा हूं, लेकिन अहिंसक नहीं. सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है, अहिंसा सर्वोच्च कर्तव्य है.'
गांधीजी ने अपने अनुयायियों को 'गांधीवाद' और उनके विचारों के प्रकाशन के प्रयास के खिलाफ आगाह किया था. गांधी जी ने कहा था 'गांधीवाद के जैसी कोई चीज नहीं है. मैं अपने बाद कोई पंथ नहीं छोड़ना चाहता.'
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मत प्रचार (propaganda) के माध्यम से गांधीवादी आदर्शों को बढ़ावा देने की जरूरत नहीं थी. गांधी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था 'इसके बारे में किसी साहित्य या मत प्रचार की जरूरत नहीं थी. जो लोग उस सामान्य सत्य पर भरोसा करते हैं, जिसका जिक्र मैंने किया है, वे इसे अपने रहन-सहन में अपना कर प्रसारित कर सकते हैं. सही क्रिया अपने आप में एक मत प्रचार होती है, इसे दूसरे की जरूरत नहीं होती.'
अंग्रेजी भाषा के लेखक-कवि रोनाल्ड डंकन ने गांधी जी सबसे व्यावहारिक (practical) आदमी करार दिया था. बकौल डंकन, गांधीजी हमेशा विचारों का व्यक्तिगत पहलू पहले देखते थे, इसके बाद वे व्यावहारिक प्रयोग करते थे.
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सत्याग्रह या सर्वोदय, सत्य या अहिंसा- सभी आदर्शों को गांधीजी ने खुद के लिए तय किया. अपने दिमाग की प्रयोगशाला में इनका परीक्षण किया. गांधी के लिए विज्ञान धर्म की तरह ही महत्वपूर्ण था. इनमें किसी तरह का कोई टकराव नहीं था.
गांधी के आध्यात्म में विज्ञान, धर्म और दर्शन का समन्वय था. यदि सत्याग्रह से मानवता की भावना महान बनी, तो सर्वोदय से सभी लोगों को 'प्यार का कोमल बंधन' मिला. इन लोगों में अमीर-गरीब, कर्मचारी-नियोक्ता, सबसे लंबा और सबसे छोटा भी शामिल रहा.
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गांधी जी ने 'दिमाग' को एक बेचैन परिंदा करार दिया. उन्होंने लिखा था कि मानवीय दिमाग सभी समस्याओं की जड़ है, इसे नियंत्रित करने की जरूरत है.
दिमाग रूपी परिंदे का जिक्र करते हुए गांधी जी ने लिखा है, 'इंसान जितना ज्यादा हासिल करता है, ये उससे भी ज्यादा पाना चाहता है. इसके बाद भी ये असंतुष्ट रहता है.' सादा, लेकिन अर्थपूर्ण जीवन तभी संभव है, जब दिमाग शांत हो. संयम ही मानवता के विकास की कुंजी है. गांधी जी ने कहा कि निपुणता की पराकाष्ठा बिना सर्वोच्च संयम के हासिल नहीं की जा सकती.
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नि:स्वार्थ क्रिया का अर्थ समझाते हुए गांधी जी ने गीता का हवाला देते हुए कहा, 'ऋषियों का कहना है कि आत्म-त्याग का अर्थ, एक ऐसी क्रिया को करना है जो इच्छा से उत्पन्न हो, और त्याग करने का अर्थ है अपने फल का समर्पण.'