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जब गांधी ने कहा था, मेरे पास दुनिया को सिखाने के लिए कुछ नहीं है

इस साल महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती मनाई जा रही है. इस अवसर पर ईटीवी भारत दो अक्टूबर तक हर दिन उनके जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा कर रहा है. हम हर दिन एक विशेषज्ञ से उनकी राय शामिल कर रहे हैं. साथ ही प्रतिदिन उनके जीवन से जुड़े रोचक तथ्यों की प्रस्तुति दे रहे हैं. प्रस्तुत है आज 11वीं कड़ी...

समर्थकों के साथ गांधी (फाइल फोटो साभार-गेटी इमेज)

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Published : Aug 26, 2019, 7:01 AM IST

Updated : Sep 28, 2019, 7:04 AM IST

महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि 'मैं एक व्यावहारिक आदर्शवादी होने का दावा करता हूं.' जीवन और समस्याओं से मुझे कई बातें सीखने को मिली, गांधी इस बात की व्याख्या करते हैं. गांधी ने उस दावे को खारिज कर दिया, कि उन्होंने मानवता के लिए किसी नए दर्शन या संदेश की खोज की है. उन्होंने घोषणा की थी, 'मेरे पास दुनिया को सिखाने के लिए कुछ नया नहीं है.' उन्होंने कहा था 'सत्य और अहिंसा उसी तरह पुराने हैं, जैसे पर्वत.'

सत्य का लक्ष्य पाने के लिए अपनी अनथक कोशिशों के दौरान गांधी ने अपने प्रयोगों के अलावा गलतियों से भी सीख हासिल की. सत्य और अहिंसा गांधी के दर्शन का मूल सिद्धांत हैं. हालांकि, एक जैन मुनि के साथ चर्चा के दौरान गांधीजी ने स्वीकार किया था कि सत्य उनकी सहज प्रवृत्ति है, लेकिन वे अहिंसक नहीं हैं. महात्मा ने कहा था 'मैं सत्यवादी रहा हूं, लेकिन अहिंसक नहीं. सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है, अहिंसा सर्वोच्च कर्तव्य है.'

गांधीजी ने अपने अनुयायियों को 'गांधीवाद' और उनके विचारों के प्रकाशन के प्रयास के खिलाफ आगाह किया था. गांधी जी ने कहा था 'गांधीवाद के जैसी कोई चीज नहीं है. मैं अपने बाद कोई पंथ नहीं छोड़ना चाहता.'

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मत प्रचार (propaganda) के माध्यम से गांधीवादी आदर्शों को बढ़ावा देने की जरूरत नहीं थी. गांधी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था 'इसके बारे में किसी साहित्य या मत प्रचार की जरूरत नहीं थी. जो लोग उस सामान्य सत्य पर भरोसा करते हैं, जिसका जिक्र मैंने किया है, वे इसे अपने रहन-सहन में अपना कर प्रसारित कर सकते हैं. सही क्रिया अपने आप में एक मत प्रचार होती है, इसे दूसरे की जरूरत नहीं होती.'

अंग्रेजी भाषा के लेखक-कवि रोनाल्ड डंकन ने गांधी जी सबसे व्यावहारिक (practical) आदमी करार दिया था. बकौल डंकन, गांधीजी हमेशा विचारों का व्यक्तिगत पहलू पहले देखते थे, इसके बाद वे व्यावहारिक प्रयोग करते थे.

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सत्याग्रह या सर्वोदय, सत्य या अहिंसा- सभी आदर्शों को गांधीजी ने खुद के लिए तय किया. अपने दिमाग की प्रयोगशाला में इनका परीक्षण किया. गांधी के लिए विज्ञान धर्म की तरह ही महत्वपूर्ण था. इनमें किसी तरह का कोई टकराव नहीं था.

गांधी के आध्यात्म में विज्ञान, धर्म और दर्शन का समन्वय था. यदि सत्याग्रह से मानवता की भावना महान बनी, तो सर्वोदय से सभी लोगों को 'प्यार का कोमल बंधन' मिला. इन लोगों में अमीर-गरीब, कर्मचारी-नियोक्ता, सबसे लंबा और सबसे छोटा भी शामिल रहा.

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गांधी जी ने 'दिमाग' को एक बेचैन परिंदा करार दिया. उन्होंने लिखा था कि मानवीय दिमाग सभी समस्याओं की जड़ है, इसे नियंत्रित करने की जरूरत है.

दिमाग रूपी परिंदे का जिक्र करते हुए गांधी जी ने लिखा है, 'इंसान जितना ज्यादा हासिल करता है, ये उससे भी ज्यादा पाना चाहता है. इसके बाद भी ये असंतुष्ट रहता है.' सादा, लेकिन अर्थपूर्ण जीवन तभी संभव है, जब दिमाग शांत हो. संयम ही मानवता के विकास की कुंजी है. गांधी जी ने कहा कि निपुणता की पराकाष्ठा बिना सर्वोच्च संयम के हासिल नहीं की जा सकती.

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नि:स्वार्थ क्रिया का अर्थ समझाते हुए गांधी जी ने गीता का हवाला देते हुए कहा, 'ऋषियों का कहना है कि आत्म-त्याग का अर्थ, एक ऐसी क्रिया को करना है जो इच्छा से उत्पन्न हो, और त्याग करने का अर्थ है अपने फल का समर्पण.'

बकौल गांधी, राजनीति और अर्थशास्त्र मानव के विकास के लिए अहम हैं. राजनीति हमेशा अमान्य नहीं रह सकती. सत्ता की राजनीति का त्याग करें, लेकिन सेवा की राजनीति को आगे बढ़ाएं. धर्म (ethics) के बिना राजनीति गंदगी है.

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अर्थशास्त्र सामाजिक न्याय से जुड़ा हुआ है. ये समान ढंग से सभी लोगों की भलाई प्रचारित करता है. इसमें सबसे कमजोर भी शामिल होता है, इसलिए एक प्रतिष्ठित जीवन के लिए अर्थशास्त्र परम आवश्यक है.

गांधी का मानना था कि राजनीति और अर्थशास्त्र, दोनों का लक्ष्य एक ही है- सबकी भलाई, न कि, किसी एक वर्ग या फिर बहुमत में रहने कुछ लोगों की भलाई.

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विरोधाभासों की धरती पर गांधी ने ये स्वीकार किया था कि वे सबसे बड़े विरोधाभासी हैं. आधुनिक दृष्टिकोण का एक आदमी, जिसने सिर्फ एक खादी का कपड़ा पहना, और जहां भी गए, चरखा कातते रहे. दर्द और पीड़ा और अपमान और अपमान को सहन करने की उनकी क्षमता असीम (boundless) थी. यही कारण था कि, आइंस्टीन ने गांधी को 'एक आदमी का चमत्कार' (the miracle of a man) करार दिया था.

गांधीजी के पास एक दुर्लभ उपहार था- खुद पर हंसना. चरखे का जिक्र करते हुए उन्होंने एक बार कहा था लोग चरखा कातने के कारण मुझ पर हंसते हैं, और एक प्रखर आलोचक ने एक बार देखा कि, जब मैं मरा, अंतिम संस्कार के समय चरखा चिता बनाने के काम आ सकते हैं. हालांकि, इससे चरखे के प्रति मेरा विश्वास नहीं हिल सका.'

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गांधीजी ने तत्परता से अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा 'अगर वे बिना खादी की मदद के ग्रामीण उद्योग, और हमारे लोगों को पूर्ण रोजगार मुहैया कराते हैं, मैं इस क्षेत्र में अपने रचनात्मक काम को समेटने के लिए तैयार हूं.' गांधीजी की हत्या के तीन साल के बाद आचार्य विनोबा भावे ने एक मार्मिक अनुमोदन किया था. उन्होंने कहा था कि अगर सरकार रोजगार के अन्य विकल्प खोज सके तो, 'उन्हें एक दिन का खाना बनाने के लिए लकड़ी के चरखे को जलाने में कोई संकोच नहीं होगा.'

महात्मा गांधी मशीन या आधुनिकीकरण के खिलाफ नहीं थे. वे उन मशीनों का जरूर स्वागत करते, जिनसे झोपड़ी में रहने वाले लोगों का भार कम होता हो. गांधी जी 'सभी की भलाई के लिए किए गए आविष्कार के लिए इनाम भी देते.'

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गांधी जी मशीनों को बढ़ाने की सनक (craze), और लाखों लोगों की भुखमरी की चिंता किए बिना धन-संचय (accumulation of wealth) का विरोध करते थे. उन्होंने जो उपदेश दिए उसका खुद व्यवहार भी किया. गांधी जी ने वैसे आदर्श स्थापित किए, जिसका पालन किया जा सके.

गांधी जी की 150वीं जयंती हमारे लिए एक मौका है. हम गांधी जी के काम और आदर्शों की सार्वकालिक प्रासंगिकता पर विचार करें.

150वीं गांधी जयंती महात्मा के प्रति आभार प्रकट करने का भी अवसर है. आभार हमारे लिए ऐसी विरासत छोड़ जाने के प्रति. मेरी कामना है कि हम इसके योग्य बनें !

(लेखक- प्रोफेसर ए प्रसन्ना कुमार)
आलेक में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.

Last Updated : Sep 28, 2019, 7:04 AM IST

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