हैदराबाद : आखिर वह क्या कारण था, जिसने प्रणब मुखर्जी को भारत का प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था. यह सवाल शायद सभी लोगों के दिल में होगा कि लोकसभा चुनावों में पार्टी की शानदार जीत के बाद 2004 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी को देश का प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया. इनके बजाय उन्होंने मनमोहन सिंह को मनोनीत कुर्सी देने का फैसला किया.
2004 में कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने अप्रत्याशित रूप से मनमोहन सिंह को यूपीए- कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के नए प्रमुख के रूप में नामित किया, जिससे हर कोई हैरान था. खासतौर पर प्रणब मुखर्जी.
यह बात खुद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रणब मुखर्जी की अंतिम पुस्तक गठबंधन के वर्ष (Coalition Years 1998-12 ) के शुभारंभ पर दिल्ली में कही थी.
मनमोहन सिंह ने कहा, 'जब मैं प्रधानमंत्री बना, तो प्रणब मुखर्जी परेशान थे. सोनिया गांधी ने मुझे पीएम बनने के लिए चुना, जबकि मुखर्जी पार्टी में सबसे वरिष्ठ थे.'
उन्होंने कहा, 'वह एक राजनेता हैं और यह उनके स्वाभाव में झलकता है. मैं दुर्घटना से राजनेता बन गया. वह पीएम बनने के लिए अधिक योग्य थे, लेकिन उन्हें पता था कि मेरे पास कोई विकल्प नहीं है.'
डॉ सिंह ने कहा, 'उनके पास परेशान होने का एक कारण था, लेकिन उन्होंने मेरा सम्मान किया और हमारे बीच एक बेहतरीन रिश्ता कायम हुआ, जो तब तक रहेगा जब तक हम जीवित रहेंगे.'
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने एक साक्षात्कार में कहा कि हिंदी पर उनकी पकड़ कम होना और राज्यसभा में उनके लंबे कार्यकाल की वजह से उन्हें देश का पीएम बनने के लिए अयोग्य बना दिया.
अन्य कारण
1984 में अक्टूबर के अंत में मुखर्जी और राजीव गांधी पश्चिम बंगाल का दौरा कर रहे थे, इस दौरान उन्हें इंदिरा गांधी की हत्या के बारे में सूचना मिली.
अपनी पुस्तक ('द टर्बुलेंट इयर्स' 1980-1996) में एक आत्मकथात्मक लेख में मुखर्जी ने उस क्षण को याद किया जब उन्हें इंदिरा गांधी की हत्या की खबर मिली थी.
उन्होंने लिखा कि आंसुओं ने मेरे चेहरे से बहना शुरू किया और मैं फूट-फूटकर रोने लगा, कुछ समय बाद और काफी प्रयास के बाद मैं खुद को संभाल पाया.
आखिरकार, यह इंदिरा गांधी का मार्गदर्शन था कि मुखर्जी ने अपने राजनीतिक ज्ञान को समृद्ध किया और अपने करियर को ऊंचाइयों तक ले गए.
यह ऐसे ही नहीं था, इंदिरा उन्हें अक्सर हर स्थिति से निपटने वाले शख्स के रूप में संदर्भित करती थीं. 1978 में जब कांग्रेस विभाजित हुई, तो वह उन कुछ लोगों में से एक थे, जो इंदिरा गांधी के साथ दृढ़ता से खड़े थे.
उन्होंने अपनी पुस्तक में अपने पिता द्वारा उनके साथ खड़े होने की सलाह को याद करते हुए कहा, 'पिताजी ने मुझसे कहा कि मुझे आशा है कि तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, जिससे मुझे तुम पर शर्म आए. सही इंसान वही होता, जब वह दूसरों के साथ उनके संकट की घड़ी में खड़ा होता है.'
उन्होंने लिखा, 'उनका अर्थ स्पष्ट था और मैंने इंदिरा गांधी के प्रति अपनी निष्ठा से कभी पीछे नहीं हटा.'
वह उनके साथ खड़े रहे, जब आपातकाल की घोषणा के लिए उनकी आलोचना की जा रही थी, वह हर कदम का समर्थन करते थे और आपातकाल हटाए जाने के बाद उन्होंने आपातकाल के आरोपों को भी साझा किया.
1984 में जब इंदिरा गांधी की अचानक मृत्यु हो गई, तो कई लोग सोचते थे कि वह इंदिरा गांधी की जगह ले लेंगे, जिस तरह 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद और 1966 में शास्त्री के निधन के बाद संसदीय प्रथा के तहत प्रधानमंत्री पद संभालने के लिए संसद के एक शीर्ष सदस्य को राष्ट्रपति द्वारा बुलाया गया था.
यह उम्मीद की जा रही थी कि परंपरा को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रपति जैल सिंह, कार्यवाहक प्रधानमंत्री की भूमिका निभाने के लिए मुखर्जी, जो उस समय के वित्त मंत्री थे, को बुलाएंगे. हालांकि, ऐसा नहीं हुआ.
मुखर्जी ने अपनी किताब में लिखा है कि पहले के उदाहरणों में जब भी प्रधानमंत्री का निधन हुआ, उनकी मौत स्वाभाविक थी, लेकिन इस मामले में एक असाधारण स्थिति थी, क्योंकि प्रधानमंत्री की हत्या कर दी गई थी. इस घटना के आसपास बड़ी संख्या में अनिश्चितताएं पैदा हो गई थीं.
इस तरह के माहौल में अब भी पश्चिम बंगाल से दिल्ली वापस लौटते हुए उन्होंने अपने साथ अन्य कांग्रेस सदस्यों के साथ मिलकर यह तय किया कि इंदिरा के बेटे राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद देना जरूरी है, लेकिन दिल्ली में उतरने से पहले ही यह मामला सुलझ चुका था. इसके लिए उर्वरक मंत्री वसंत साठे ने कथित तौर पर राजीव से चुनाव के लिए चर्चा करने का बीड़ा उठाया.
हालांकि इसके कुछ समय बाद मुखर्जी को उस समय करारा झटका लगा, जब दिसंबर 1984 में हुए संसदीय चुनावों में कांग्रेस ने 414 सीटों पर जीत हासिल की और जीत के बाद जब राजीव गांधी ने अपनी नई कैबिनेट की घोषणा की, तो उसमें प्रणब मुखर्जी का नाम शामिल ही नहीं था.
उन्होंने लिखा, 'जब मुझे मंत्रिमंडल से अपने निष्कासन का पता चला, तो मैं स्तब्ध रह गया और गुस्से में आगबबूला हो गया. मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था, लेकिन मैंने खुद को संभाले रखा और अपनी पत्नी के साथ बैठकर टीवी पर शपथ ग्रहण समारोह देखा.'
संसद से बाहर किए जाने के बाद, मुखर्जी ने 1986 में पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस (RSC) की स्थापना की. हालांकि, तीन साल बाद ही RSC का राजीव गांधी के साथ समझौता करने के बाद कांग्रेस में विलय हो गया.
1991 में देश ने एक और प्रधानमंत्री की हत्या देखी, इस बार निशाना बने राजीव गांधी. हालांकि, यह माना जाता है कि राजीव गांधी की मृत्यु के बाद प्रणब मुखर्जी का करियर पुनर्जीवित हो गया.
तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के नेतृत्व में मुखर्जी को भारतीय योजना आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया और उसके बाद 1995 में वह विदेश मंत्री बने.
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राजीव गांधी की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री की भूमिका निभाने के लिए कहा गया. हालांकि उन्होंने इनकार कर दिया. उसके बाद भी वह लंबे समय तक राजनीति में आने से इनकार करती रहीं.
उसके बाद वह 1997 में कलकत्ता पूर्ण सत्र में एक प्राथमिक सदस्य के रूप में पार्टी में शामिल हुईं और बाद में 1998 में पार्टी की नेता बन गईं.
कुछ दिनों के बाद, उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद की पेशकश की गई, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया. कथित तौर पर प्रणब मुखर्जी इस पद के लिए सबसे मजबूत दावेदार थे.
ऐसा माना जाता है कि मुखर्जी ने सोनिया को राजनीतिक शिक्षा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
2004 के चुनावों के बाद जब कांग्रेस सत्ता में लौटी, तो सोनिया गांधी प्रधानमंत्री पद के लिए स्पष्ट विकल्प थीं. हालांकि, विदेशी मूल के होने के कारण उनकी कड़ी आलोचना हुई और उन्होंने प्रधानमंत्री पद को अस्वीकार कर दिया. उस समय भी मुखर्जी प्रधानमंत्री पद के मजबूत दावेदार थे.
मुखर्जी ने अपनी किताब गठबंधन की सरकार (The coalition years 1996- 2012) में लिखा, 'सोनिया गांधी के पीएम पद को अस्वीकार करने के बाद अपेक्षा थी कि मैं प्रधानमंत्री के लिए अगली पसंद बनूंगा. यह उम्मीद संभवतः इस तथ्य पर आधारित थी कि मुझे सरकार में व्यापक अनुभव था, जबकि सिंह का विशाल अनुभव एक सुधारवादी वित्त मंत्री के रूप में पांच साल के साथ एक सिविल सेवक के रूप में था.'