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विशेष लेखः क्या अपनी विचारधारा से पीछे हट रही है भाजपा ?

2014 के आम चुनाव में अपनी शानदार जीत दर्ज करने के बाद, भाजपा ने जून 2016 में अरुणाचल प्रदेश में पहली बार दलबदल करवाने का खेल शुरू किया. यहां भाजपा ने पहले कांग्रेस पार्टी में फूट डाली, फिर अपने ही सहयोगी दल पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल (पीपीए) को सरकार बनाने के लिए तोड़ दिया. विडंबना यह है कि पेमा खांडू (जो जून 2016 तक कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे) अब भाजपा के मुख्यमंत्री बनकर कुर्सी पर आसीन हैं.

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पीएम मोदी और अमित शाह

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Published : Dec 6, 2019, 11:37 AM IST

मार्च 2017 में मणिपुर चुनाव में, कांग्रेस ने 60 सदस्यीय सदन में 28 सीटें जीतीं. भाजपा ने 21 सीटें जीतीं. फिर भी भाजपा ने छोटे दलों से समर्थन हासिल करके सरकार बना ली.

मार्च 2017 में गोवा विधानसभा की 40 सीटों के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा की 13 सीटों के मुकाबले 17 सीटें जीतीं. लेकिन बीजेपी ने विपक्षी विधायकों को लालायित करके जादुई आंकड़े को हासिल कर लिया. जुलाई 2019 में भाजपा ने कांग्रेस के 10 और विधायक अपनी तरफ कर लिए और 27 की गिनती पाकर एक आरामदायक स्थिति में आ गई.

जनवरी 2018 में भाजपा ने नागालैंड में नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) को विभाजित कर दिया, जिसके कारण अलग हुआ समूह द्वारा नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) का गठन हुआ. इसके बाद, भाजपा ने राज्य के मध्यावधि मुख्यमंत्री के रूप में एनडीपीपी के नेफ्यू रियो का चयन किया, और सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा बन गई.

मेघालय में 2018 के चुनाव में, कांग्रेस 60 सदस्यीय सदन में 21 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. बावजूद इसके भाजपा सिर्फ 2 विधायकों के साथ नेशनल पीपुल्स पार्टी (19 सीटें) और अन्य छोटे दलों को एक साथ लाकर सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा बन गई.

जुलाई 2019 में, 17 विधायकों (14 कांग्रेस और 3 जेडी-एस) के इस्तीफे के कारण जेडीएस-कांग्रेस सरकार के पतन के बाद कर्नाटक में भाजपा सत्ता में आई. उनमें से 16 अब भाजपा के सदस्य हैं.
भाजपा का सहयोगियों के प्रति रवैया

2014 के आम चुनाव के पहले, तेलगु देशम पार्टी भाजपा के साथ इस शर्त पर गठबंधन करने को तैयार हुई थी कि आंध्रप्रदेश को एक विशेष श्रेणी का दर्जा दिया जाएगा. मार्च 2018 में तेदेपा ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) से बाहर निकलकर मोदी सरकार पर अपना वादा न निभाने का आरोप लगाया.

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भाजपा ने 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद जम्मू और कश्मीर में वैचारिक रूप से विरोध करने वाले पीडीपी के साथ चुनाव के बाद गठबंधन किया और सरकार बनाई. लेकिन जून 2018 में भाजपा ने गठबंधन तोड़ने का फैसला ले लिया.

सिक्किम में, भाजपा ने पवन चामलिंग की सिक्किम लोकतांत्रिक मोर्चे में फूट डाली. मई 2019 में विपक्षी एसडीएफ विधायकों के कुल 15 विधायकों में से 10 के शामिल होने के बाद, भाजपा अब मुख्य विपक्षी दल बन गई है. ये अलग बात है कि अप्रैल 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को नकामयाबी का सामना करना पड़ा.

झारखंड के आगामी चुनाव में भाजपा के लंबे समय साथ रहे सहयोगी दल (आजसू और लोक जनशक्ति पार्टी) ने राजग का साथ छोड़ दिया है, क्योंकि भाजपा ने सीटों के बंटवारे को लेकर सहयोगी दल की मांगों को मानने से इनकार कर दिया था.
क्या हुआ महाराष्ट्र में

महाराष्ट्र चुनाव में भाजपा के लगभग 15% उम्मीदवार प्रतिद्वंद्वी राकप-कांग्रेस खेमे से थे, जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे. पार्टी के समर्थकों और कार्यकर्ताओं के बीच इस पर नाराजगी को भांपते हुए, महाराष्ट्र के भाजपा नेता रावसाहेब दानवे ने एक चुनावी रैली के दौरान कहा, 'भाजपा के पास वॉशिंग मशीन है. किसी को भी पार्टी में लेने से पहले, हम उन्हें गुजरात के निरमा पाउडर का उपयोग करके मशीन में धोते हैं.' उन्होंने ये वक्तव्य मोदी-शाह के गुजरात मूल के मद्देनज़र कहा था.

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लेकिन महाराष्ट्र की जनता ने ये साबित कर दिया कि मशीन और पाउडर दोनों हमेशा प्रभावी नहीं होंगे. भाजपा अपने दम पर 145+ सीटें भी नहीं जीत सकी. न ही अपने चुनाव के पूर्व साथ आये सहयोगी दल शिव सेना का समर्थन राजग के साथ बनाये रख सकी. यह प्रतिद्वंद्वी राकांपा-कांग्रेस-सेना के खेमे से विधायकों को लुभाने में भी विफल रही. राकांपा के बागी नेता अजीत पवार के साथ मध्य रात्रि तख्तापलट में विफल रहने के कारण, भाजपा ने शिवसेना के राकांपा-कांग्रेस के साथ जाने पर अवसरवाद का आरोप लगाने का नैतिक अधिकार भी खो दिया.

राजग के लिए 220 सीटों से ज्यादा की जीत दर्ज करने से आश्वस्त देवेन्द्र फडणवीस बार-बार राकांपा-कांग्रेस का मज़ाक उड़ाते हुए कहते पाए गए. उन्होंने कहा, 'चुनाव के पश्चात महाराष्ट्र में विपक्ष का नामोनिशान तक नहीं बचेगा.' लेकिन विडंबना देखिए कि खुद देवेंद्र अब विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं.

भाजपा शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस सरकार में आंतरिक अंतर्विरोधों को उजागर करके उनके बीच वैचारिक रूप से संवेदनशील मुद्दों को उठाने के लिए कमर कस रही है ताकि वह जल्द ही इस सरकार का पतन सुनिश्चित कर सके. लेकिन, ठाकरे-सरकार का कार्यकाल उतना कम नहीं, जितना भाजपा का हिसाब है. इसका कारण हैं एनसीपी प्रमुख शरद पवार: वैचारिक रूप से शिवसेना और कांग्रेस के बीच मध्यस्थ. वास्तव में, पवार अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटेंगे, क्योंकि उन्हें कई कारणों से भाजपा के साथ हिसाब बराबर करना है.

52 वर्षों के सार्वजनिक जीवन में, मराठा बलवान को तब अच्छा नहीं लगा, जब सत्तासीन मुख्यमंत्री फडणवीस ने घोषणा की कि चुनाव-परिणाम महाराष्ट्र की राजनीति में पवार के बाद के अध्याय की शुरुआत होगी. 'पवार साहब को अपना बोरिया-बिस्तर बांध लेना चाहिए क्योंकि महाराष्ट्र के लोग इस चुनाव के बाद उनकी राजनीति का खात्मा कर देंगे.'

भाजपा ने पवार पर दूसरा हमला तब किया, जब प्रधानमंत्री मोदी ने एक चुनावी सभा में सार्वजनिक तौर पर उनका नाम लेते हुए कहा कि वे पकिस्तान के प्रशंसक हैं. 15 सितंबर को राकांपा की अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ की बैठक के दौरान, पवार ने पड़ोसी देश का दौरा करने पर आतिथ्य के लिए पाकिस्तान की प्रशंसा की थी.

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हालांकि, इस मराठा योद्धा का मन भाजपा की ओर से तब और भी ज्यादा खट्टा हो गया, जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, जो राकांपा के कई नेताओं को उकसाकर भाजपा में शामिल करवाने में मुख्य भूमिका निभा चुके हैं – ने कहा, 'अगर हम अपना दरवाजा खोलते हैं, तो पवार को छोड़कर सभी राकांपा के नेता भाजपा में प्रवेश करने लिए कतार में लग जाएंगे.' आरोपों-प्रत्यारोपों की अति तब हो गई जब महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक में हुए एक घोटाले में मनी-लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी ने पवार का नाम लिया.

परिणाम के दिन ने भाजपा की सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. पवार ने चुनाव प्रचार के दौरान उन सभी अपमानजनक टिप्पणियों के लिए भाजपा नेताओं का दिल से धन्यवाद किया. राकांपा ने अपने दम पर 54 सीटें जीती, बीजेपी की गणना से बहुत अधिक सीटें थी, जो राकांपा-कांग को एक साथ मिलाकर कुल 50 सीटें दे रहे थे.

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महाराष्ट्र की राजनीति में पवार की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकारते हुए 18 नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी ने राज्यसभा में पवार के सामने सदन के वेल में कभी भी प्रवेश नहीं करने के लिए राकांपा की प्रशंसा की. फिर, दोनों नेताओं ने 20 नवंबर को 40 मिनट की बैठक की. दोनों घटनाओं ने संकेत दिया कि पवार और मोदी के निजी संबंध में अच्छा तालमेल है.

फिर भी, पुराने योद्धा पवार यह भलीभांति जानते थे कि राजनीति में बातचीत को मज़बूत स्थिति से अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सकता है, ना कि निजी संबंधों के सहारे. यही कारण है कि, उन्होंने पार्टी विधायकों पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए - अपने भतीजे अजीत पवार को राकांपा को विभाजित करने और भाजपा-राकांपा सरकार बनाने की कोशिश को नाकाम कर दिया.

अजीत ने पवार की बेटी सुप्रिया सुले के नीचे संभावित कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में काम करने की संभावना पर असहज होकर 23 नवंबर को विद्रोह कर दिया था. यह सोचकर कि दल में उनसे इत्तेफाक रखने वाले और नेता भी ऐसा ही करेंगे. मगर ऐसा हो नहीं सका. कोई भो राकांपा का विधायक दल छोड़कर उनकी साथ नहीं गया. बाद में अजीत खुद भी राकांपा की छत्रछाया में लौट आये.

दूरदर्शिता प्रदर्शित करते हुए शरद पवार ने अजीत को (फिलहाल) क्षमा कर दिया, यह महसूस करते हुए कि अजीत - विद्रोह के बावजूद - राकांपा में सुप्रिया की तुलना में अधिक प्रभाव रखते हैं. अजीत की दल में वापसी के साथ, पवार शिवसेना-राकांपा-कांग सरकार के कार्यकाल को दीर्घायु देने के लिए काम पर लग गए हैं.

यह अच्छी तरह से जानते हुए कि शिवसेना राकांपा की तुलना में भाजपा के प्रति अधिक दुर्भावना रखती है, पवार शिवसेना को भाजपा पर बंदूक तानने देंगे. वे अपना योगदान तब देंगे, जब राज्य भाजपा के हमलों और केंद्र की प्रतिशोध की राजनीति को बेअसर करने के लिए ठाकरे के तरीकों में कमी आने लगेगी. नतीजतन, शिवसेना-राकांपा-कांग सरकार न्यायाधीश बीएच लोया की रहस्यमय मौत की जांच फिर से शुरू कर सकती है, जो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ हत्या के आरोप में फैसला सुनाने वाले थे.

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फिर, भीमा कोरेगांव का मामला भी है, जिसमें प्रमुख वामपंथी विचारकों, दलित कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों को महाराष्ट्र पुलिस ने (विश्वास करना मुश्किल है) एक रोड-शो के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की हत्या करने की साजिश में फंसाया है. प्रधानमंत्री मोदी का सपना मुंबई और अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन की परियोजना भी पटरी से उतर सकती है, अगर बीजेपी ने मुख्यमंत्री ठाकरे को ज्यादा परेशान करने की कोशिश की.

निश्चित रूप से, पवार के अपने लंबे इतिहास को देखते हुए जहां, 'वे खरगोशों के साथ तेज़ी से चले हैं और शिकारी कुत्तों के साथ शातिराना तरीके से शिकार किया है.' वे अपना अगला कदम कब उठाना है ये तय करने में कोई जल्दबाजी नहीं करेंगे. शायद जब तक वे राकांपा में उत्तराधिकार के मुद्दे को नहीं सुलझाते और भाजपा के नेतृत्व वाले केंद्र के साथ पूरी तरह सौदा तय नहीं कर लेते हैं. तब तक, राकांपा को मंत्रालय में सबसे अधिक 16 सीट और उप-मुख्यमंत्री का पद हासिल करने के बाद अधिकतम आनंद लेना सुनिश्चित है.

स्वतंत्र विश्लेषकों पूरे महाराष्ट्र प्रकरण में राकांपा को सबसे बड़ा लाभार्थी घोषित कर रहें हैं. वे यह भी मानते हैं कि शिवसेना - सीएम की कुर्सी हासिल करने के बावजूद आगे चलकर सबसे ज्यादा नुकसान उठाने वाली है.

शिवसेना का अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों राकांपा-कांग के साथ गठबंधन करने के बाद, राकांपा-कांग्रेस विरोधी वोटों की एकमात्र दावेदार के रूप में भाजपा उभरी है. इसके अलावा, 8-10% मजबूत हिंदुत्व समर्थन-आधार अब भाजपा को भगवा मशाल के एकमात्र वाहक के रूप में देखता है, लेकिन शिवसेना के लिए सबसे मुश्किल सवाल यह है: क्या राकांपा-कांग्रेस मध्यावधि या कार्यकाल पूरा होने पर चुनाव के दौरान शिवसेना के साथ सीटों को साझा करेंगे? कुछ महीनों में स्थानीय निकाय चुनाव होने पर यह तस्वीर भी साफ हो जाएगी.एक समय में, आरएसएस ने दो हिंदुत्व दलों भाजपा और शिवसेना के बीच उठे विवाद को निपटाने के लिए कदम उठाया था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से इशारा पाने के बाद शिवसेना ने दो शर्तों पर 5 साल की अवधि के लिए मुख्यमंत्री पद की अपनी मांग को वापस लेने का संकेत दिया था:

1. केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी राजग के मुख्यमंत्री बने.

2. आदित्य ठाकरे को उप-मुख्यमंत्री बनाया जाये.

लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने ये तर्क देते हुए शिवसेना की शर्तों को खारिज कर दिया कि: 'पहले तो गडकरी केंद्रीय मंत्रिमंडल में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले मंत्रियों में से एक हैं, फिर सहयोगी दल भाजपा की लगभग आधी सीटों पर जीत हासिल करके आधे कार्यकाल के किये मुख्यमंत्री पद को हासिल कर लेता है, तो बाकी दलों के लिए एक गलत मिसाल कायम हो जाएगी. शिवसेना जैसा छोटा दल (56 विधायक) बड़े दल भाजपा (105 विधायकों) को घुटनों पर लाने की इस बड़ी सफलता का जोरशोर से प्रचारित करेगा.'

दोनों पक्षों द्वारा अपनी शर्तों से हिलाने से इनकार करने पर, आरएसएस ने मध्यस्थता से खुद को हटा लिया.

(लेखक- राजीव राजन)

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