गांधी ने स्वराज में अपनी उपलब्धियों के लिए गुजरात विद्यापीठ की सराहना की थी. सोलह वर्ष से भी कम आयु के चालीस छात्रों ने कैसे अपने शिक्षकों के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रूप से योगदान दिया था. गुजरात विद्यापीठ का नारा था 'सा विद्या य विमुक्ति', जिसका अर्थ है वास्तविक शिक्षा, आध्यात्मिकता के संदर्भ में मुक्ति, जीवन के भौतिकवादी दृष्टिकोण से मुक्ति की दिशा में एक कदम आगे है.
गांधी ने जोर देकर कहा कि यदि नमक अपने नमक से रहित हो जाता है तो किसी भी डिश को नमकीन और स्वादिष्ट कैसे बनाया जा सकता है? इसी तरह अगर छात्र ईमानदारी, मेहनत और इच्छा शक्ति से रहित हैं, तो फिर वह राष्ट्र कैसे आगे बढ़ सकता है? किसी भी राष्ट्र के लिए एक मजबूत आधार होना अनिवार्य है और छात्र एक राष्ट्र के आधार स्तंभ हैं.
गांधी का मानना था कि चरित्र किसी राष्ट्र की वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. एक देश न केवल छलांग और अपनी सीमाओं से आगे बढ़ता है अगर उस देश के नागरिक चरित्र में मजबूत होते हैं, बल्कि सद्भाव और विकास के ठोस मिश्रण का एक उदाहरण स्थापित करके दुनिया का नेतृत्व करते हैं. छात्रों के चरित्र को मजबूत करना तभी संभव हो सकता है जब शिक्षक अपने छात्रों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं.
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वे न केवल ज्ञान प्रदान करते हैं बल्कि उन्हें अपने गुरु और रोल मॉडल के रूप में प्रेरित और मार्गदर्शन भी करते हैं. एक मजबूत संबंध छात्र-शिक्षक संबंधों में अपरिहार्य है. उनका मानना था कि सीखना दो तरह की प्रक्रिया है.
एक शिक्षक अपने छात्रों से अधिक सीखता है जितना वह सिखाता है. शिक्षा से बच्चों की शारीरिक, मानसिक और नैतिक वृद्धि होती है. गांधी एक दूरदर्शी थे. छात्रों के समग्र विकास के एकमात्र उद्देश्य के लिए गांधी ने सभी के लिए बुनियादी शिक्षा की अवधारणा पेश की. 7-14 वर्ष की आयु के सभी छात्रों को उनकी मातृभाषा में मुफ्त शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए.
उन्होंने छोटे, आत्मनिर्भर समुदायों से युक्त एक यूटोपियन राष्ट्र की परिकल्पना की. ऐसे आदर्श समाज को प्राप्त करने का एकमात्र तरीका शिक्षाशास्त्र के माध्यम से था, जिसने साक्षरता को बढ़ावा दिया और एक साथ काम किया.
गांधी ने कहा कि स्कूल स्तर पर पाठ्यक्रम में मिट्टी के बर्तन, बुनाई, कताई, लकड़ी का काम, टोकरी बनाने और धातु के काम के साथ-साथ साक्षरता भी शामिल होनी चाहिए. अपने आप में साक्षरता कोई शिक्षा नहीं है. ज्ञान के साथ-साथ हस्तशिल्प सीखने के कई मायने होते हैं. प्रत्येक स्कूल राज्य का आर्थिक और सामाजिक रूप से स्वतंत्र रूप से स्वावलंबी और अधिक महत्वपूर्ण बन जाएगा.
बच्चा न केवल आत्मनिर्भर बनेगा, उसकी मोटर कौशल और एकाग्रता में भी सुधार होगा और मैनुअल काम के लिए उसका झुकाव विकसित होगा जो बाद में उसे अपना जीवन यापन करने में भी मदद करेगा. आजकल स्कूल तीन साल से बच्चों के मोटर कौशल को बढ़ाने के लिए कई खेलों की शुरुआत करते हैं और वे कुछ हद तक सफल भी होते हैं, लेकिन बच्चे जीवन के यथार्थवादी क्षेत्रों से दूर हो जाते हैं. वे न केवल दैनिक घरेलू कामों को करने की आदत विकसित करने में विफल रहते हैं, बल्कि किशोर उम्र तक हर छोटी चीज के लिए अपने माता-पिता पर निर्भर रहते हैं.
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यद्यपि शिक्षित हैं, लेकिन अपने छोटे उद्योगों से अनभिज्ञ रहते हैं, जमीनी स्तर पर अपने राष्ट्र के साथ उनके संबंध से रहित होने के कारण उन्हें आम जनता से अलग रखा जाता है. वे एक चेतना विकसित करने में विफल रहते हैं और आत्मनिर्भरता के लिए आग्रह करते हैं और आलसी, अनजान और अहंकारी बन जाते हैं.
गांधी की शिक्षा की अवधारणा आज भी प्रासंगिक है. शिक्षा में उनका पहला प्रयोग दक्षिण अफ्रीका के टॉल्स्टॉय फार्म आश्रम में शुरू हुआ. उन्होंने हरिजन में एक प्रभावशाली लेख में शिक्षा के शिक्षण को मैप किया जिसमें उन्होंने न केवल हस्तशिल्प के यांत्रिक उपयोग पर जोर दिया, बल्कि उनके पीछे शामिल विज्ञान पर भी जोर दिया. वह कहते हैं, 'बच्चे को पता होना चाहिए कि क्यों और हर प्रक्रिया के आगे क्या है.'
'असली कठिनाई यह है कि लोगों को इस बात का कोई पता नहीं है कि शिक्षा वास्तव में क्या है. हम शिक्षा के मूल्य का आकलन उसी तरह करते हैं जैसे हम स्टॉक एक्सचेंज मार्केट में जमीन या शेयरों के मूल्य का आकलन करते हैं. हम केवल ऐसी शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं जिससे छात्र अधिक कमा सके. हम शिक्षितों के चरित्र में सुधार के लिए शायद ही कोई विचार देते हैं.
लड़कियों, हम कहते हैं, कमाने के लिए नहीं है, तो उन्हें शिक्षित क्यों किया जाना चाहिए? जब तक इस तरह के विचार बने रहेंगे, तब तक शिक्षा के वास्तविक मूल्य को जानने की हमारी कोई उम्मीद नहीं है.'
(लेखक- डॉ वर्षा गुप्ता, दिल्ली विवि में अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं)
(आलेख में लिखे विचार लेखर के हैं. इनका ईटीवी भारत से कोई संबंध नहीं है)