भारतीय राजनीति में कुछ ऐसा घटित हो रहा है, जिसे देखकर कहा जा सकता है कि चाणक्य और कौटिल्य जैसे महान रणनीतिकार को भी नया सबक मिल रहा है. महाराष्ट्र की राजनीतिक उठापटक इसका जीता-जागता उदाहरण है.
केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी की यह टिप्पणी, कि भारत की राजनीति और क्रिकेट काफी अप्रत्याशित है, महाराष्ट्र की फडणवीस सरकार पर बिल्कुल फिट बैठती है. उनकी सरकार महज चार दिनों में ध्वस्त हो गई. 22 नवंबर 2019 की रात आठ बजे तक यह तय हो चुका था कि शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस ने उद्धव ठाकरे के नाम पर सहमति बना ली है. वे लोग अगले ही दिन राज्यपाल से मिलने वाले थे. लेकिन सुबह आठ बजे तक राजनीति पलट चुकी थी. जिसने भी टेलीविजन पर खबरें देखीं, वह भौंचक रह गया. देवेंद्र फडणवीस सीएम पद की शपथ ले चुके थे. भाजपा ने 'ऑपरेशन आकर्ष' चलाया. एनसीपी नेता अजित पवार भाजपा खेमे में जा चुके थे. उन्होंने खुद उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उन्होंने एनसीपी के सभी 54 विधायकों के समर्थन का दावा किया था. लेकिन अजित पवार अपने दावे को हकीकत में नहीं बदल सके. एनसीपी में कोई विभाजन नहीं हुआ.
न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ के फैसले के मद्देनजर अजित पवार ने इस्तीफा दे दिया. बाद में मुख्यमंत्री फडणवीस ने भी त्याग पत्र देना ही बेहतर विकल्प समझा. इसके बाद राज्यपाल ने एनसीपी-कांग्रेस-शिवसेना को सरकार बनाने का मौका दिया.
वर्तमान परिदृश्य में यह देखा जाना है कि क्या यह त्रिपक्षीय गठबंधन न्याय कर सकता है और अपनी व्यक्तिगत पार्टी सिद्धांतों को एक-दूसरे के साथ टकराए बिना एक स्थिर सरकार बना सकता है.
1996 में तत्कालीन प्रधान मंत्री वाजपेयी ने साफ किया था कि वे विपक्षी पार्टियों में विभाजन कर सत्ता में बने रहना पसंद नहीं करेंगे. उनकी सरकार महज 13 दिनों में ही गिर गई थी. यह एक बड़ी मिसाल थी. समकालीन राजनीति में उस तरह के मूल्य ढूंढना मुश्किल हो जाएगा, जबकि कोई भी दल या नेता सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है.
महाराष्ट्र चुनाव में शिवसेना और भाजपा ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा था. शिवसेना को 56 और भाजपा को 105 सीटें मिली थीं. इस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला था. लेकिन शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद की मांग कर दी और फिर राज्य राजनीतिक अनिश्चितता के भंवर में फंस गया. यहां तक कि राष्ट्रपति शासन भी लगाना पड़ गया.