रांची : करम या करमा पर्व झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों की संस्कृति से जुड़ा लोकपर्व है. यह पर्व भाई-बहन के प्रेम को दर्शाता है. हिंदू पंचांग के अनुसार भादो मास की एकादशी में मनाया जाने वाला पर्व करमा आदिवासियों की परंपरा में बहुत ही खास महत्व रखता है.
इस दिन आदिवासी पुरुष और महिलाएं मिलकर करम देवता की पूजा करते हैं. इस मौके पर सभी पारंपरिक परिधान लाल बार्डर के साथ सफेद रंग के साड़ी और धोती में जगह-जगह लोक नृत्य करते नजर आते हैं. आदिवासियों के साथ-साथ सनातन धर्म प्रेमी भी इस पर्व में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं, लेकिन इस बार कोरोना महामारी को देखते हुए सतर्कता के साथ करमा पर्व को मनाने का निर्णय लिया गया है.
करमा के बाद होता है शुभ मुहूर्त की शुरुआत
झारखंड में पेड़-पौधे की पूजा करने की प्रथा सदियों से चली आ रही है. प्रकृति के प्रति मानव समाज की यह परंपरा बहुत पुरानी है. आदिमानवों ने जब प्रकृति के उपकार को समझा तब से ही यह प्रकृति पर्व आदिवासियों के संस्कृति का हिस्सा बन गया. आज भी इसकी प्रासंगिकता है. इसमें प्रकृति का संदेश निहित है. जैसे करम में करम डाली, सरहुल में सखुआ फूल, जितिया में कतारी आदि का पूजा करते आ रहे हैं. आदिवासी करमा पर्व की पूर्व संध्या से ही इसकी तैयारी में लग जाते हैं. इस पर्व का आदिवासी बड़े ही बेसब्री से इंतजार करते हैं, क्योंकि करमा पर्व के बाद से ही आदिवासी समाज में शादी और शुभ कार्य की शुरुआत की जाती है.