चेन्नई : तमिलनाडु के लोगों के लिए जल्लीकट्टू - न सिर्फ दो हजार साल पुरानी परंपरा है, बल्कि तमिलों के जीवन का एक अभिन्न अंग है जिसे अलग नहीं किया जा सकता है. संगम काल में, इसे 'इरु थझुवुथल' के नाम से जाना जाता था और यह त्योहार का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा था.
पुरातत्वविदों के मुताबिक, पुरातात्विक स्थल मोहनजोदड़ो से मिले अवशेष में सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान बुल फाइट के प्रमाण मिले हैं, जो दिल्ली संग्रहालय में रखा है.
पीढ़ियों से चली आ रही यह प्रथा तमिलों द्वारा पोंगल उत्सव के हिस्से के रूप में मनाई जाती है, जो तमिलों का प्रमुख उत्सव है.
एक तमिल कविता में कहा गया है कि एक तमिल लड़की अपने अगले जन्म में भी ऐसे लड़के से शादी नहीं करेगी, जो सांड की सींग से डर गया. यह कविता दर्शाती है कि संगम युग में जल्लीकट्टू लोगों के जीवन का कितना अभिन्न अंग था.
पूरे तमिलनाडु में शायद ही कोई ऐसा गांव मिलेगा, जहां के लोग बिना सांड के रहते हों. परंपरा के प्रतीक के अलावा सांडों को ग्रामीणों के जीवन में आर्थिक उत्थान का सबसे अच्छा साधन माना जाता है.
साहित्य में भी पशुधन के रूप में विशेष रूप से सांड और गाय के अधिक उल्लेख मिलते हैं.
इस शाक्तिशाली जानवर के कूबड़ को गले से लगाते हुए सींगों को पकड़ना आज भी पूरे राज्य में बहादुरी का कार्य माना जाता है.
जल्लीकट्टू खिलाड़ी थीरू दीपक ने बताया कि वह करीब 30 साल से जल्लीकट्टू प्रतियोगिता में भाग ले रहे हैं. हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियां भी इस परंपरा का निर्वाह करती रहें. साथ ही हम इसे अपने किसानों के जीवन की बेहतरी के लिए संरक्षित करना चाहेंगे.
जल्लीकट्टू के लिए सांड का प्रशिक्षण
आम तौर पर, जल्लीकट्टू के लिए सांड को तैयार करना एक कला है. सामान्य पशुओं के विपरीत उन पर विशेष ध्यान और अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है.
रोजाना, पशु को घुमाने के लिए ले जाना पड़ता है और खेल का समय नजदीक आने से पहले तैराकी सत्र की भी आवश्यकता पड़ती है.
साथ ही पड़ोसियों और दोस्तों के साथ दौड़ लगवा कर सांड को तैयार किया जा सकता है.
एक अन्य जल्लीकट्टू खिलाड़ी अलागरसामी ने बताया कि सांड को प्रशिक्षित करने के लिए बहुत कोशिश करनी पड़ती है. दोस्तों और परिवार की भूमिका महत्वपूर्ण है. हम आमतौर पर चारे के साथ सुबह हरे चने का चूर्ण खिलाते हैं.
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उन्होंने बताया कि जल्लीकट्टू प्रतियोगिता से एक महीने पहले, सांड को ताकत के लिए कपास के बीज (cotton seeds) खिलाए जाते हैं, और नियमित रूप से दौड़ने और तैरने का अभ्यास कराया जाता है. यह सुनिश्चित किया जाता है कि सांड अपना प्रदर्शन जारी रखें.
हालांकि, तमिलों के लिए सांड के बिना जीवन की कल्पना करना असंभव है. तमिल लोगों ने सांड को पालने के साथ-साथ दुधारू नस्ल के पशुओं की रक्षा की है.
जल्लीकट्टू बचाओ आंदोलन क्यों हुआ
पशु क्रूरता की आड़ में, पेटा (PETA) जैसे संगठनों को जल्लीकट्टू के खिलाफ खड़ा किया गया था और वे कुछ वर्षों के लिए खेल को रोकने में कामयाब रहे.
साल 2017 में बड़े पैमाने पर 'जल्लीकट्टू बचाओ' आंदोलन हुआ. जिसके कारण केंद्र सरकार को सांड को खेल में भाग लेने वाले जानवरों की सूची से हटाना पड़ा.
सांड पालने वाले करुप्पनसामी का कहना है कि यह हमारा प्राचीन और पारंपरिक खेल है. केंद्र सरकार ने पेटा के कहने पर जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध लगाया था. लेकिन जल्लीकट्टू बचाओ आंदोलन ने केंद्र को प्रतिबंध रद्द करने के लिए मजबूर किया.
मदुरै के बाहरी इलाकों और अन्य जिलों में जल्लीकट्टू केवल खेल ही नहीं, बल्कि पोंगल त्योहार की खुशी को दोगुना कर देता है. इससे भावी पीढ़ियों को सांस्कृतिक संदेश भी मिलता है और यह परंपरा के निर्वाह का साधन भी है. जल्लीकट्टू तमिलनाडु के लोगों का गौरव है.